?⁉?
*सुन्न होते समाज में ज़िन्दगी का बिगुल*
अब्दुल रशीद अगवान
“जितने बड़े ख़तरे उतनी ही गहरी नींद।” आज हमारे समाज की यही हक़ीक़त हमारे सामने है।
हम सब समझ सकते हैं कि जिस दौर में अपनी और अपने परिवार की शहरीयत साबित करने जैसा चैलेंज सर पर लटक रहा हो और सरकारी दस्तावेज़ों की अहमियत बढ़ चुकी हो ऐसे में सिर्फ 25-30% लोग ही वोटर वेरिफिकेशन कर पाये हों, यही साबित करता है कि कुछ को छोड़ कर न तंज़ीमें और न अवाम इस काम को अहमियत दे रहे हैं।
चुनाव दर चुनाव वोट मांगने वाली पार्टियां और उनके कारकून भी ज़िदाबाद-मुर्दाबाद के नारों के बीच अपनी इस ज़िम्मेदारी को भूल जाते हैं कि वोटर बेदारी और वोटर रजिस्ट्रेशन भी उनका एक अहम सियासी फ़र्ज़ है।
पूरे 45 दिन सोशल मीडिया पर मेसेज आते रहे कि वोटर वेरिफिकेशन और वोटरलिस्ट में नये नामों का रजिस्ट्रेशन कितना अहम है। मगर कुछ पिछड़े इलाक़ों में कुल मिलाकर एक तिहाई लोगों से भी कम ने इसकी परवाह की है।
अब तारीख़ बढ़ने के बाद दिल्ली में 31अक्टूबर और दूसरे सूबों में 18 नवंबर तक का वक़्त हमारे सामने है कि इस काम को और तेज़ी से किया जाये।
पढ़े लिखे लोग जो एंड्रोएड मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं शाम के 2-3 घंटे रोज़ देकर अपने आसपास के लोगों को आनलाइन वोटर वेरिफिकेशन और रजिस्ट्रेशन का तरीक़ा सिखा सकते हैं या इसमें उनकी मदद कर सकते हैं।
कुछ नहीं तो अपने घर के बाहर टेबल-कुर्सी लगाकर हर आने-जाने वाले की इस मामले में रहनुमाई करें।
सुन्न होते समाज में ज़िन्दगी फूंकना बड़ा मुश्किल काम होता है मगर हमारे सामने यही एक बड़ा चैलेंज अगले कुछ दिनों में रहेगा।
हम कोशिश करें कि सौ फीसदी न सही बड़ी हद तक लोगों के नाम वोटर लिस्ट में शामिल हो सकें। मुल्क में जम्हूरियत के बाक़ी और जारी रहने लिए यह एक अहम फरीज़ा है जिसे हमें अदा करना होगा।