गुजरात के उना शहर की घटना कोई नई नहीं देश में जिस तरह का माहौल पिछले २ वर्षों में बना ऐसा शायद पहले आज़ाद देश में नहीं रहा लेकिन दलितों और मुसलमानो पर नफरत और ज़ुल्म के पहाड़ तो टूटते ही रहे हैं जो आजकल आम बात हुए जा रही है एक सवाल पूछा जारहा है की देश में पहले गोरक्षक नहीं थे या गौ पर अत्याचार नहीं था ? जवाब मिला गोरक्षक के रक्षक नहीं थे जो अब मिल गए हैं काश यह कहने वला भी कोई होता पीड़ितों और मज़लूमों को अब रक्षक मिल गए हैं मगर ऐसा कोई इमकान नहीं दिखता। हालाँकि हमारे देश की जनता का अधिकतर भाग देश में इंसानो से प्यार की भावना को परवान चढाता है और एकदम सेक्युलर है।
गोरक्षा पर बनाई गयी समितियों को इंसानो को जानवर की तरह पीट कर जान से मार देने का अधिकार किसने दिया क्या क़ानून इस सम्बन्ध में कोई कार्रवाई करने की स्तिथि में नहीं या उग्र्रवादियों को क़ानून पर भरोसा नहीं जो खुद ही सजा देने का काम जुर्म साबित होने से पहले ही करने लगते हैं ।गोरक्षा के नाम पर बनी समितियां केवल पीड़ितों पर हमलहि नहीं करतीं बल्कि उनका रुपया पैसा और मोबाइल व दुसरे कीमती सामान को भी लूटने का काम करती है इस प्रकार की कई घटनाएं पूरे देश में सुनने को मिली हैं ।
मगर कुछ दिन प्रतोरोध में आरोप प्रत्यारोप का स्वांग चलता है और फिर वही कहानी क्रूरता की दोहराई जाती है ।
पिछले दिनों एक नगो के हेड से मुलाक़ात हुई वो अजीब डिमांड करना छह रहे थे सरकार से की देश से गोरक्षा के नाम पर होने वाली लूटपाट को बंद करने के लिए सरकार को गो मंत्रालय बनना चाहिए और साथ ही देश में पैदा होने वाली गाओ वंश की हर एक जाती का लेख जोखा रखना चाहिए साथ ही इनका जीवन मरण का भी रिकॉर्ड वय्वस्थित किया जाना चाहिए जिसके लिए लगभग ५० हज़ार करोड़ का सालाना बजट सरकार को तय करना होगा और साथ ही ग़रीब किसानों की बेदूध वाली गायों और कमज़ोर पशुओं की और लावारिस सभी गायों की देख भाल के लिए पंचायत स्तर पर गाओ आश्रमों की वयवस्था करनी चाहिए तथा उनकी पूरी देख रख के लिए उचित प्रबंध कराया जाना चाहिए तभी इस बात का अंदाजा होगा की वास्तव में गाये हमारे देश की राष्ट्रीय पशु है या आस्था का सिम्बोल है अनयथा इस प्रकार की लूटपाट और ज़ुल्म ही चलता रहेगा जिसके दुष परिणाम होने के भी पूरी सम्भावना बानी रहती है ।
अजीब जब लगता है जब हमारे देश के एक ही वर्ग के कुछ लोग इसकी रक्षा को तथाकथित अपना धर्म समझते हैं जबकि कुछ लोग इसके मांस को खान अपना अधिकार और निजी मममला कहकर पुजारियों की खिल्ली उड़ाते हैं ,यदि वास्तव में यह धार्मिक आस्था का विषय है तो धर्म के सभी लोगों के लिए ये पूजनीय होना चाहिए जबकि ऐसा नहीं होता बल्कि होटलों और कैंटीनों में बकायदा परोसा जाता है जबकि देश के कुछ स्थानों पर मरी गाये की खाल की सफाई करने वाले दलितों की चमड़ी उधेड़ी जाती है इसको क्या कहंगे आप?
उना में दलित नौजवानों की घटना काफी दुखद है जो दुर्भाग्ये या सोभञे पूर्ण मानसून सत्र के जस्ट पहि हुई और सांसद में बहस और प्रदर्शन का मुद्दा बन गयी शायद कुछ होसके मगर दलितों के वोट पर और बाबा भीम रो के नाम पर सांसद तक पहुँचने वाले लगभग 100 सांसदों की ज़बान पर किसने रोक लगाई यह तो आप जानते ही हैं ,वरना होना यह चाहिए था की उना के दलितों की छाती और पीठ पर पड़ने वाली लाठी की चीज़ और दर्द को ये भी समझते तथा पार्लियामेंट में इस क्रूरता के विरुद्ध अपनी आवाज़ को बुलंद करते और सभी पीड़ितों को कहते की यदि तुम्हारी पीठ पर लाठी बरसेगी तो हम भी पार्लियामेंट की छाती पर बैठकर संवैधानिक तौर पर न्याय दिलाएंगे किन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ लगता है सभी तथाकथित जातियों और समुदायों के नेता कम्युनिटी की नहीं बल्कि पार्टी की आवाज़ को बुलंद करते हैं वर्ना यही उदित राज क्या कुछ नहीं कहा इन्होने मनुवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ आज लगता है गिरवी रख दी है समाज के अधिकारों की आवाज़ को ….एक बेचारे उदित राज न जाने कितने ही नेता अपने समाज की शान ओ शौकत और उनके अधिकारों को नीलाम करचुके हैं ।
उना घटना पर और कुछ दिन चर्चा होगी लेख और आर्टिकल्स लिखे जाएंगे मगर जल्दी ही भूल जाएंगे इसको भी माज़ी की घटना समझकर मगर देश का दुश्मन और उग्र्वादि अपनी मन की भड़ास को शैतानी रूप में इंसानो पर निकालता रहेगा देश का बेहिस नागरिक कुछ दिन अफ़सोस करेगा और भूल जायेगा हालाँकि ऐसे भी नागरिक देश ने दिए हैं जो अपनी जान की परवाह किये बगैर इंसानो के रूप में दरिंदों को फटकार लगाने से नहीं चूकते ।।