रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजे हालत का असर देश की खाद्यान्न व्यवस्था पर पड़ता दिखाई दे रहा है. युद्ध से पहले तक विश्व में गेहूं निर्यात में रूस नंबर 1 और यूक्रेन 5वें स्थान पर था. उनके निर्यात से हटते ही भारत निर्यात बढ़ने से टॉप 10 में आ गया है. देश से अन्य देशों में अनाज सप्लाई करना ज्यादा फायदे का सौदा दिखाई दे रहा है. इसके चलते बड़े व्यापारियों से किसानों को गेहूं का दाम ज्यादा मिल रहा है. जिसका नतीजा सरकार की स्तर पर होने वाली समर्थन मूल्य पर खरीद व्यवस्था पूरी तरह से पटरी से उतर गई है.
सरकारी योजनाओं के लिए गेहूं के भंडारण पर भी संकट होता दिखाई दे रहा है.सरकार की तरफ से किसानों को काउंटर तक लाने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन बाजार मूल्य ज्यादा होने से बात नहीं बन रही है.राजस्थान में इस बार पंजीकरण कराने वाले किसानों की संख्या 12574 रही है.
अब तक पूरे प्रदेश में मात्र 749 टन गेहूं की खरीद हुई है, जबकि पिछली बार इस समय तक करीब चार लाख टन गेहूं की खरीद हो चुकी थी. वहीं, सरसों को लेकर भी इसी तरह का माहौल है अभी तक किसी भी किसान से सरसों की खरीद नहीं हुई है.
प्रदेश में 15 मार्च से गेहूं की खरीद सरकारी स्तर पर हो रही है, लेकिन किसान मंडी नहीं पहुंच रहे है. हालात ये हैं कि श्रीगंगानगर और कोटा के अलावा किसी और सरकारी केंद्र पर खरीद नहीं हुई है. दरअसल, फिलहाल गेहूं के एमएसपी पर खरीद के दाम 2015 रुपए प्रति क्विंटल हैं और इसके बाजार भाव 2500 रुपए क्विंटल के ऊपर तक बने हुए हैं.
यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते इसके दाम आगे भी गिरने के आसार नहीं हैं. इसलिए किसान बाजार में अपना गेहूं बेचना चाहता हैभारत में खाद्य तेल की कीमतों में और इजाफा होने का संकेतों को देखते हुए खुले बाजार में जबर्दस्त तरीके से सरसों की खरीद हो रही है. किसानों को सात हजार रुपए प्रतिटन औसत सरसों के भाव मिल रहे हैं. ऐसे में समर्थन मूल्य पर सरकार खरीद बुरी तरह प्रभावित हुई है. भारत खाद्य तेलों का सबसे बड़ा आयातक है, और अपनी जरूरत का 50-60 फीसदी खाद्य तेल आयात करता है. इंडोनिया के इस फैसले का असर इसलिए पड़ रहा है कि भारत अपनी जरूरत का 50 फीसदी से ज्यादा पाम तेल इंडोनेशिया से ही आयात करता है.