Ali Aadil Khan
Editor’s Desk
6 दिसम्बर 1992 की शाम थी ,,,,,
अयोध्या में ढहाई जा रही थी एक क़दीम इबादतगाह
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये 21 वीं सदी के अंत की सबसे भयानक घटना थी
जब देश विश्व गुरु बनने का सपना देख रहा था
कहते हैं , पहले धम्म् की आवाज़ के साथ ज़मीन पर मस्जिद का एक गुम्बद गिरा
फिर दूसरा और फिर तीसरा
और फिर गिरने का जैसे न ख़त्म होने वाला सिलसिला चलता रहा
फिर किसी हाजी की टोपी गिरी , तो किसी पंडित का गमछा गिरा
कितनी माताओं के गर्भ से अजन्मा बच्चे गिरे
हाथ से बुनते हुए ऊँन के धागे गिरे, रामनामी गमछे गिरे, खड़ाऊँ गिरी
बच्चों की पतंगे और खिलौने भी गिरते गए
मासूमों के अधूरे ख्याबों से उम्मीदों की परियाँ चींख़तीं हुईं निकलकर भागीं
सिरग अज़ानों के मोअज़्ज़िन ही नहीं गिरे
कारसेवक गिरे , पुजारी गिरे और गिरने का एक सिलसिला चलता गया
विश्व गुरु होने का अनदेखा सपना टूटा
कीचड़ में एक बदरंग फूल खिला , उम्मीद बनी
शायद खुश नुमा बनेगा ये फूल , मगर इस उम्मीद के टूटने सिलसिला भी चलता रहा
कितने घर वीरान हुए , वयवसाय लुटे , कारखाने जले
मस्जिदों , शिवालों से उठते धुएं ने आसमान का नीला रंग काला कर दिया
काले धुएँ में लिपटा अंधकार , मुल्क के विकास को दशकों पीछे धकेल गया
और पूरे मुल्क पर छाता चला गया नफरत , द्वेष और फ़िरक़ावारियत घना अन्धकार
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक चुपचाप निर्वासित हुए
एक के बाद एक
फिर गाँव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे
भाले और तलवारें गिरीं
गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम ख़ून गिरा
गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी
नेता-परेता गिरे, सियासी क़द्रें गिरीं
इंसानियत , आदमियत , मोहब्बत गिरी
और इस तरह एक के बाद एक नामालूम कितना कुछ
भरभरा कर गिरता ही चला गया
“जो कुछ गिरा था वो शायद एक इमारत से काफ़ी बड़ा था…”
कहते-कहते पडोसी ताऊ की आवाज़ भर्राने लगी
और गला रुँधने लगता है , आँखें नम होने लगीं , और कहने लगे
इस बार पासबाँ नहीं मिले काबे को सनमख़ाने से
और सदियों से मुसलसल तौहीद का निशाँ मस्जिद
देखते-देखते मलबे के ढेर में बदलती चली गयी
अब जो बन रहा है वो देश की संस्कृति , एकता अखंडता , स्वामित्ता , निष्पक्षता और मोहब्बतों की पोटली को बेचकर बन रहा है
कितना पायेदार होगा , कोई नहीं जानता , धरती कब तक उठाएगी ज़ुल्मों के इस बोझ को
मगर मुझे नाज़ है अब भी इसी हिन्द पर , क्योंकि
इसकी सरज़मीं से मीर-ए-अरब को ठंडी हवाएँ आती थीं
और नाज़ है उसी राम पर जिसको अहले नज़र इमाम इ हिन्द समझते हैं
इसी इंतज़ार में , हर एक हादसे को मशीयत इ इलाही समझता हूँ
और उनसे पूछता हूँ , जो विश्वगुरु बनने की बात करते हैं
खुद दस्तार गिराकर गुरु का सम्मान करवाना किसी और से चाहते हो
और कब तक गिरती रहेगी हमारे सम्मान की वो पकड़ी
जिसको हमारे अस्लाफ़ ने खून से धोकर सजाई थी
मेरे मुल्क़ के रहबरों और ज़िंदा बाशिंदों बतलाओ मुझे
कि वो कोनसी ईमारत है जो इस मुल्क़ के हर गय्यूर बशर के भीतर
एक बोसीदा दीवार की तरह गिरती है फिर उभर आती है
शायद यह वही मस्जिद है जिसको ध्वस्त करके देश के माथे पर हमेशा के लिए शर्मिंदगी का टीका लगा दिया है
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गाँव में नहीं बल्कि दूर बहुत दूर अयोध्या में स्थित है