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सूखते कुँए तालाब और बोसीदा होती बाओलियाँ

सूखते कुँए तालाब और बोसीदा होती बाओलियाँ

सूखते कुँए तालाब और बोसीदा होती बाओलियाँ

Ali Aadil khan Editor in chief ///TOP News Group 

क्या आप इस बाओली के बारे में जानते हैं , नहीं , ज़ाहिर है अव्वल तो नई पीढ़ी बाओली के बारे में ही नहीं जानती , बुनयादी तौर पर आज से लगभग 45 वर्ष पूर्व तक खाने पीने और दुसरे इस्तेमाल केलिए पानी का source कुँए और बाओली ही हुआ करते थे , पानी की स्वच्छता और गुणवत्ता का पूछना ही क्या । पानी खुद हाज़मे के चूर्ण का काम करता था , पानी का बेजा इस्तेमाल नहीं होता था । पानी कुँए और बाओली से निकालकर मट्टी के घड़ों और चरियों में रखा जाता था । पानी पूर्ण मात्रा में उपलब्ध था ।

कपडे घाटों पर धुला करते थे , पानी का किसी स्तर पर भी बेजा इस्तेमाल नहीं था ।मगर रफ्ता रफ्ता विकास और development के नाम पर भारतीय समाज का वयवसायिकरण होता गया और देखते ही देखते मार्किट पर पूँजी वाद का क़ब्ज़ा होगया । और पानी का बेजा इस्तेमाल होने लगा , 50 वर्ष पूर्व तक एक इंसान थोड़े पानी में शौच तथा स्नान से फ़ारिग़ होजाय करता था आज शहर में औसतन एक व्यक्ति 50 से 70 लीटर पानी खर्च करता है , इसके अलावा घर की धुलाई गाडी की धुलाई लोन की सिचाई इत्यादि में जो पानी का खर्च है उसका कोई हिसाब नहीं है ।

पीने के पानी का जो मज़ा कुँए या बाओली से होता था वो RO या Aquaguard के पानी में नहीं बल्कि RO को तो सेहत के लिए हानिकारक बताया गया है क्योंकि RO का पानी योरोप वग़ैरा में किडनी के मरीज़ को पिलाया जाता है , RO आम सेहतमंद इंसान के लिए नहीं है मगर इस RO ने देश में बड़ा कारोबार करके पूंजीवादी घरानो की चांदी बना दी ।

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फिलहाल मेरा टॉपिक कुँए और बाओली के चलन की उपयोगिता और उससे होने वाले जल संरक्षण पर केंद्रित है तो इस चलन की जगह नलकूप और बाद में सबमर सीबल ने जब से ली है तब से जल का स्तर लगातार गिर रहा है , हालाँकि जल स्तर घटने और दुसरे बड़े कारण हैं जिनमे विराक्षों लगातार कटान , ग्लोबल वर्मिन के कारण ग्लेशियर्स का पिघलना इत्यादि ।

लेकिन देहातों में तालाबों का ख़त्म होजाना और सबमेर सीबालों का आम चलन होजाना भी जल स्तर के घाट जाने का बड़ा कारण है , जबकि 4 से 6 हज़ार की आबादी वाले गॉंव में कम से कम पांच तलाबों का होना जल स्तर के नियंत्रित रहने के लिए ज़रूरी बताया जाता है ।और घरों के waste water के जमाव पहले तालाबों में ही हुआ करता था जो अब नालों के माध्यम से बाहर निकला गया है ।

कुल मिलाकर देश और दुनिया में आने वाले जल संकट के लिए बढ़ते शहरीकरण को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिसमें पिछले 40 वर्षों के तुलना में आज 400 गुना पानी का बेजा इस्तेमाल है ।

मुझे याद है मेरे कुछ हिन्दू दोस्त वज़ू के लोटे का मज़ाक़ बनाते हुए कहा करते थे तुम लोग लोटे में टोंटी क्यों इस्तेमाल करते हो जबकि हमारे लुटिया में इसका इस्तेमाल नहीं है , आज समझ आया की लोटे में टोंटी का क्या महत्व है उस वक़्त जब एक मुस्लमान टोंटी वाले लोटे से वज़ू करता था तो पानी 1 लीटर बहुत होता था आज मुस्लमान वज़ू के दौरान जब नलका खोलकर वज़ू करता है तो कम से कम ५ लीटर पानी बहाता है ।

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तो आज हमको लगता है इंसानी ज़िंदगी गुज़ारने का तरीक़ा 50 वर्ष पुराण तक ठीक था , बाओली और कुँए तालाब की वयवस्था बहुत human friendly थी । खाने में refind की जगह सरसों का शुद्ध तेल , चीनी की जगह गुड़ , स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों की जगह तांबा या मिटटी के बर्तनो का इस्तेमाल इंसानी सेहत में मददगार था ।Iodized नमक के नाम पर इंसानी जिस्म में जोड़ों का दर्द आम कर दिया गया है पहले डली वाला नमक पीसकर और मिटटी की हांडी में साबुत नमक की डलियों का इस्तेमाल हमने अपने बचपन में देखा ।लकड़ी के चूल्हों पर तवे की रोटी का मज़ा ही कुछ और था ।आज सब कुछ पूँजीवाद की भेंट चढ़ गया है ।

इंसान की कमाई दुनिया ज़माने के बिलों को भरने , डाक्टरों , वकीलों , अस्पतालों , पेट्रोल और मोबाइल व् इंटरनेट के बिलों को भरने में ही इंसान की ज़िंदगी का चक्र घूमा जा रहा है बची खुची ज़िंदगी इन बिलों को भरने की लाइन में लगकर ख़त्म हो जारही है ।इंसान का रिश्ता मिटटी के बर्तनो से छूटना शुरू हुआ और अब खून के रिश्तों के छूटने की चिंता नहीं बल्कि इसकी चिंता है कि अपनी खून की बूँद जान की दुश्मन न बन जाए ।चलो बाओली , कुँए , तालाब और मिटटी के बर्तनो की तरफ लौट चलें और अपने जीवन को सुखी बनाने की कोशिश करें , मगर क्या यह सब आज संभव है मुझे लगता है हाँ ।संभव है ।Editor’s desk

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