
शीर्ष अदालत की ओर से बनाई गयी समिति के सदस्य किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान ने अपना नाम वापस ले लिया है.
नई दिल्ली: क्या किसान आंदोलन गणतंत्र दिवस यानि २६ जनवरी तक चलेगा अब इसपर भी बहस शुरू होगी है .कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसानों के आंदोलन का आज (गुरुवार) 50वां दिन गुज़र गया है. आंदोलन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान समाधान के लिए एक समिति का गठन किया था. जिसपर किसानो का यह ऐतराज़ था की SC से किसानो ने committe की मांग नहीं की थी . इसमें एक दूसरी जो आपत्तिजनक बात है यह थी कि कमिटी के 4 सदस्यों में से 3 पहले ही सरकार का पक्ष रखते रहे थे .
कमेटी के सदस्यों में भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान भी थे. अब उन्होंने समिति से अपना नाम वापस ले लिया है. दरअसल कमेटी में भूपिंदर मान के नाम पर शुरुआत से ही बवाल हो रहा था. किसान नेताओं का कहना था कि मान पहले ही तीनों नए कृषि कानूनों का समर्थन कर चुके हैं.
भूपिंदर सिंह मान ने पत्र लिखकर इसकी जानकारी दी. मान ने इस कमेटी में उन्हें शामिल करने के लिए शीर्ष अदालत का आभार जताया. पत्र में उन्होंने लिखा है कि वे हमेशा पंजाब और किसानों के साथ खड़े हैं. एक किसान और संगठन का नेता होने के नाते वह किसानों की भावना जानते हैं. वह किसानों और पंजाब के प्रति वफादार हैं. उनका कहना था कि मैं किसानों के हितों से कभी कोई समझौता नहीं कर सकता. वह इसके लिए कितने भी बड़े पद या सम्मान की बलि दे सकते हैं. मान ने पत्र में लिखा कि वह कोर्ट की ओर से दी गई जिम्मेदारी नहीं निभा सकते, अतः वह खुद को इस कमेटी से अलग करते हैं.

किसान नेताओं ने समिति में शामिल अन्य नामों पर पहले ही आपत्ति दर्ज करा दी थी . शीर्ष अदालत की तरफ से बनाई गई चार सदस्यों की समिति में BKU के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, शेतकारी संगठन (महाराष्ट्र) के अध्यक्ष अनिल घनवत, अन्तर्राष्ट्री खाद्य नीति शोध संस्थान दक्षिण एशिया के निदेशक प्रमोद कुमार जोशी और कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी शामिल हैं. अनिल घनवत ने मीडिया में लिखे अपने लेखों में किसान कानूनों के पक्ष में राय दी थी.
दरअसल इस पूरे मामले में SC की भूमिका पर विशेषज्ञों को पूर्वाग्रह का आभास हो चला है जबकि किसान आंदोलनकारी पहले ही यह बात कह चुके हैं कि अदालत किसानो के प्रदर्शन को ख़त्म कराना में रूचि रखती है . अब इस शक की पुष्टि उस समय होगी जब शीर्ष अदालत द्वारा समिति में उन लोगों को रखा गया जो पहले से ही सरकार समर्थक रहे हैं
कोर्ट ने कानून को अनिश्चितकाल के लिए सस्पेंड नहीं किया है. अदालत ने कहा कि कमेटी का गठन उसके अधिकार क्षेत्र में आता है लेकिन जब सबसे बड़े पक्ष किसानों को उस कमेटी से कोई उम्मीद न हो ज़रूरत न लगे तो फिर कोर्ट को कमेटी क्यों बनानी चाहिए?
ज्ञात रहे कि कई जाने-माने कृषि अर्थशास्त्रियों ने नए कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगाने तथा सरकार और आंदोलनकारी किसान संगठनों के बीच उन कानूनों को लेकर जारी गतिरोध दूर कराने के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन किए जाने के उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत किया था. पूर्व केंद्रीय मंत्री और प्रख्यात अर्थशास्त्री वाई के अलघ ने कहा था कि उन्हें लगता है कि यह (उच्चतम न्यायालय का फैसला) बहुत विवेकपूर्ण है.
जबकि आंदोलनकारी पक्ष के नेताओं का मानना है कि न्यायलय मसले के समाधान में नहीं अपितु आंदोलन खत्म करने के ज़्यादा रूचि रखता है . हालाँकि आंदोलनकारी कहते रहे हैं हमें 3 बिलों की वापसी के बाद अदालत के मश्वरों का सम्मान करना होगा .