कोई एक शख़्स हो या पूरी क़ौम जब अपने मक़ाम और मर्तबे से ग़ाफ़िल होती है तो ख़ुद भी अपना कोई फ़ायदा नहीं करती और दूसरों को भी कोई फ़ायदा नहीं पहुँचा पाती है। भारतीय मुसलमान आज कल कुछ ऐसी ही सूरते-हाल से गुज़र रहे हैं. वो अपना मक़ाम और मर्तबा भूल बैठे हैं, इसलिए न अपने लिए मुफ़ीद हैं और न ग़ैरों के लिए।
मुसलमानों को ये बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिए कि वो दूसरी क़ौमों की तरह कोई सिर्फ़ एक ‘क़ौम’ नहीं हैं. दूसरी क़ौमों की तरह अपने आपको एक “क़ौम” समझने की ग़लती की वजह से हमारा मर्ज़, इलाज के साथ-साथ बढ़ रहा है। दूसरी क़ौमों के मसाइल का जो हल है, ज़रूरी नहीं कि वही हल हमारे मसाइल के लिए भी फ़ायदेमन्द हो। दूसरी क़ौमों के सामने कोई अख़लाक़ी निज़ाम नहीं है, उनके सामने हराम और हलाल की हदें नहीं हैं, उनके नज़दीक तो दुनिया ही सब कुछ है। उनका अख़लाक़ उन्हें सच बोलने की उसी हद तक इजाज़त देता है जिस हद तक उनका नुक़सान न हो।
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अगर ज़ाती, क़ौमी या मुल्की फ़ायदों की ख़ातिर उन्हें झूट बोलना पड़े तो झूट बोलना ही उनका नैतिक धर्म है। इन क़ौमों ने मुल्क और क़ौमों को तबाह कर डाला, मुल्कों पर बम बरसाए, इन क़ौमों की दवा बनाने वाली कम्पनियों ने अपने फ़ायदों की ख़ातिर नई-नई बीमारियाँ ईजाद कीं, ग़रज़ इनके माली मामलों से ले कर सियासी मामलों तक तमाम मामले सिर्फ इस फ़ॉर्मूले पर क़ायम हैं कि अपना नुक़सान न हो। इसके बरख़िलाफ़ उम्मते-मुस्लिमा के पास एक अख़लाक़ी निज़ाम (नैतिक व्यवस्था) है, हराम व हलाल की सीमाएँ हैं, वो हर हाल में सच बोलने के पाबंद हैं, चाहे अपना या अपनी क़ौम का कितना ही नुक़सान क्यों न हो जाए। इस बड़े फ़र्क़ की वजह से ज़मीन और आसमान वालों का रवैया हमारे साथ अलग सा है।
इस फ़र्क़ और बिलकुल अलग हैसियत की बिना पर हमारी ज़िन्दगी का रवैया भी बिलकुल अलग होगा, तालीमी निज़ाम भी मुख़्तलिफ़ होगा, हमारी सियासत भी अलग ढप पर होगी। ख़ुदा बेज़ार, अख़लाक़ से ख़ाली एजुकेशन सिस्टम हमारे लिए जिहालत से भी ज़्यादा ख़तरनाक होगा और उसके नतीजे हम देख भी रहे हैं। इसी एजुकेशन सिस्टम के बारे में अकबर इलाहबादी ने कहा था।
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हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं।
जिन्हें पढ़ करके बेटे, बाप को ख़ब्ती समझते हैं॥
हमारे अख़लाक़ी निज़ाम के तहत हमारी मईशत व सियासत (Politico-Economic System) भी दुनिया के लिए मिसाली नमूना होगी। कारोबार में फ़रेब, धोका, मिलावट और ग़ैर-क़ानूनी जमा ख़ोरी को समाज में कोई जगह नहीं दी जाएगी। सियासत अपनी तमाम हक़ीक़ी, लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ ज़ाहिर होगी और सत्ता हथियाने और अपने ऐशो-आराम के लिए नहीं बल्कि अवाम को आराम पहुँचाने के लिए होगी। पद का इस्तेमाल जनता के बीच मुल्की वसाइल की मुंसिफ़ाना तक़सीम करने के लिए होगा।
आम तौर पर हमारी ग़रीबी और पिछ्ड़ेपन की वजह हमारी जिहालत और ग़ुरबत को ठहराया जाता है, मुझे इससे इनकार नहीं कि ये दोनों वजहें हमारे पिछड़ेपन में अहम् किरदार अदा कर रही हैं, मगर मेरे नज़दीक हमारी ज़िल्लत, रुसवाई और पिछड़ेपन की वजह ये है कि हम अपना ऊँचा मक़ाम भूल गए हैं। इसी लिए हम देखते हैं कि हमारे पढ़े-लिखे लोगों और मालदार समाज में भी वो बड़ी-बड़ी ख़राबियाँ मौजूद हैं जिनकी मौजूदगी हमारे अख़लाक़ से मेल नहीं खाती।
अपने मक़ाम और मर्तबे को न पहचानना ही असल में इस बात की सबसे बड़ी वजह है कि हमारे दीनदार तबक़े ने दुनिया से दूरी और किसी क़िस्म का तल्लुक़ न रखने को नेकी, बल्कि विलायत का मक़ाम समझ लिया। दूसरी तरफ़ इसी वजह से हमारे सियासी लीडर्स ने सियासत के प्लेटफ़ोर्म से अख़लाक़ और अख़लाक़ी इक़दार (नैतिक मूल्यों) को बाहर कर दिया और कह दिया कि जंग और सियासत में सब जाइज़ है। उम्मते-मुस्लिमा के लोगों ने अपनी सियासी लीडरशिप के लिए ऐसे लोगों को चुना जिनके यहाँ अपनी क़ौम के फ़ायदों के लिये किसी का भी गला काटा जा सकता था।
ग़रज़ अपने हक़ीक़ी मक़ाम को न पहचानने की वजह से हमें ग़ैरों की ज़हनी ग़ुलामी में मुब्तला कर दिया, हमें ख़ुद पर भी भरोसा न रहा, हमारे अंदर ऊँच-नीच के बीज बो दिए, हमारे बीच उन तमाम रस्मो-रिवाज और बिदअतों ने जन्म ले लिए जिनको ख़त्म करने के लिए ख़ुद उम्मत को वजूद में लाया गया था।
हमारा असल मक़ाम ये है कि हम इस ज़मीन पर आसमानी सल्तनत के नुमाइंदे हैं। हमारा मक़ाम ये है कि हम दुनिया में न्याय और इन्साफ़ को क़ायम करने और ज़ुल्म व अत्याचार को ख़त्म करने के लिए पैदा किये गए हैं।
जब तक हम अपने मक़ाम और मनसब का हक़ अदा करते रहे, कम तादाद के बावजूद हमारा डंका बजता रहा लेकिन जब हम अपने इस मक़ाम को भूल गए तो क़िस्मत ने हमारे हाथों में भीक का ठीकरा थमा दिया और दर-दर का भिकारी बना दिया। हम अपना झण्डा बुलन्द करने के बजाए ग़ैरों के झंडे उठाने लगे, दूसरों के हक़ों की हिफ़ाज़त करने के बजाए हम अपने ही हक़ों के हिफ़ाज़त की माँगें करने लगे।
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हम अगर अब भी अपना वो मक़ाम पहचान लें तो बहुत सी कमज़ोरियों और ख़राबियों को दूर कर सकते हैं। जब आपको मालूम हो जाता है कि आपका मक़ाम और मर्तबा क्या है तो फिर उसी मक़ाम व मर्तबे के मुताबिक़ अपनी तैयारी करते हैं। एक स्टुडेंट अगर ये जान जाए कि उसे डॉक्टर बनना है तो वो उसी के लिए तैयारी करता है। इसी तरह मुस्लिम उम्मत अगर ये जान जाएगी कि उसको ख़ैरे-उम्मत बनना है तो फिर वो उसी राह की तरफ़ अपना सफ़र करेगी।
उम्मते-मुस्लिमा की असल कामयाबी ज़मीन पर न्याय और इन्साफ़ क़ायम हो जाने में है। इस बड़े मक़सद के लिए उसे दुनिया के ऐश व आराम को खोना पड़ेगा, ज़ुल्म और अत्याचार से भरे इस निज़ाम के पेश किये हुए पदों को ठुकराना पड़ेगा। बल्कि अपने मक़सद तक पहुँचने के लिए क़ैदो-बंद की मुसीबतों को भी बर्दाश्त करना पड़ेगा और फाँसी के फन्दे को भी ख़ुशी से क़बूल करना पड़ेगा। अगर उम्मते-मुस्लिमा अपने ‘बेहतरीन उम्मत’ होने का शऊर और समझ हासिल कर ले तो हर ज़ुल्म के सामने एक दीवार बनकर खड़ी हो जाएगी। याद रखना चाहिये कि उम्मते-मुस्लिमा का मक़सद सिर्फ़ सत्ता हासिल करना नहीं है बल्कि वो सत्ता को हासिल ही इसलिये करना चाहती है कि ज़ुल्म का ख़ात्मा हो।
इस वक़्त भारत के मुसलमान मुल्क में अपनी पहचान (Identity) की जंग लड़ रहे हैं। आज़ादी के बाद से ही उन्होंने ने मुख़्तलिफ़ रास्तों से अपनी इज़्ज़त और ग़ैरत की हिफ़ाज़त के लिए कोशिशें कीं। यहाँ के पोलिटिकल सिस्टम के तहत उन्होंने अपने हक़ हासिल करने की जिद्दो-जुहद की लेकिन आज आज़ादी के चौहत्तर साल बाद भी वो वहीँ खड़े हैं जहाँ आज़ादी से पहले खड़े थे। बल्कि आज बिलकुल हाशिये पर पहुँच गए हैं।
हर बार नया मदारी आता है और जादू के ज़ोर पर बेवक़ूफ़ बना कर चला जाता है। ज़रूरत इस बात की है कि हम अपना मक़ाम व मर्तबा पहचानें, अपने मनसब को जानें और उस मनसब के मुताबिक़ अपने रवैयों में तब्दीली लाएँ। हमारी बुनियाद कलिमा-ए-तय्यबा पर रखी हुई है, हमारी मंज़िल नील गगन के पार है, हमारी क़ुव्वत का सरचश्मा और स्रोत हमारा ईमान है। वफ़ादारी, जाँ-निसारी, ख़ैर और भलाई हमारे ख़मीर में शामिल है। हमारी पैदाइश व तामीर के ये मक़ासिद हमें दूसरी क़ौमों से अलग करते हैं। हमारी अपनी तहज़ीब है, हमारी एक रौशन तारीख़ है जिसपर हमें नाज़ है। ये वो सरमाया है जो किसी के पास नहीं है। हमें यक़ीन है कि हम एक दिन दुनिया में अमन व इन्साफ़ क़ायम करने में ज़रूर कामयाब होंगे।
अपनी मिल्लत पर क़यास अक़वामे-मग़रिब से न कर।
ख़ास है तरकीब में, क़ौम-ए-रसूले-ए-हाशमी॥