दक्षिण भारत के सर सय्यद और बाबा-ए-तालीम डॉ मुमताज़ अहमद ख़ाँ साहब हमारे लिये मशअले राह (मार्ग दर्शक) हैं

कलीमुल हफ़ीज़
इन्सान को ख़ालिक़-ए-कायनात ने ज़मीन पर अपना नुमाइन्दा बनाया है। इसको तमाम मख़लूक़ात में सबसे बेहतर बनाया है। इसकी ख़िदमत के लिये पूरी कायनात को लगा दिया है। इसे अनगिनत सलाहियतों के साथ-साथ अनगिनत नेमतें बख़्शीं हैं। लेकिन अक्सर इन्सान न अपनी सलाहियतों से वाक़िफ़ हैं और न नेमतों का सही इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जो करते हैं वो ज़माने के लीडर बन जाते हैं। ये बात दुरुस्त है कि अल्लाह की तौफ़ीक़ से ही इन्सान कुछ करने की तौफ़ीक़ पाता है। लेकिन ये बात भी दुरुस्त है कि अल्लाह की तरफ़ से तौफ़ीक़ उसी को मिलती है जो ख़ुद को उसके लायक़ बनाता है। दुनिया के हर हिस्से में और हर दौर में ऐसे हिम्मतवाले, मुख़लिस, दूर तक देखने वाले और बाकमाल लोग पैदा हुए हैं जिन्होंने दूसरों के ग़म को अपना ग़म बना लिया, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी, अपनी तमाम सलाहियतें और सरमाया किसी बड़े मक़सद और मिशन के लिये क़ुर्बान कर दीं। इनमें एक नाम बाबा-ए-तालीम डॉ मुमताज़ अहमद ख़ाँ साहब का है। अल्लाह इन्हें सलामत रखे। (आमीन)
डॉ मुमताज़ साहब दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के त्रिचरापल्ली में मरहूम इस्माईल ख़ान एडवोकेट और बेगम सआदतुन्निसा (BA, LT) के घर 6 सितम्बर 1935 को पैदा हुए। आपके माँ-बाप AMU से पास-आउट थे। आपने मद्रास यूनिवर्सिटी से 1964 में MBBS की डिग्री हासिल की। अमली ज़िन्दगी में क़दम रखने के बाद आपकी शादी हो गई। आपका ख़ानदान भी उस वक़्त पढ़ेलिखे और मालदार घराने से ताल्लुक़ रखता था और आपकी ससुराल का ताल्लुक़ भी बेंगलोर के मालदार ख़ानदान से था।

ये वो वक़्त था जब मुल्क की आज़ादी को ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था। साम्प्रदायिक दंगों और बँटवारे के ज़ख़्म भी ताज़ा-ताज़ा थे। आज़ादी की जिद्दोजुहद के सुतून भी मौजूद थे और गवाह भी। मुस्लिम मिल्लत बँटवारे के नतीजे में तबाही व बर्बादी का शिकार हो चुकी थी। सरहदों पर तनाव था। दक्षिण भारत पहले से ही पिछड़ा हुआ माना जाता था। देश के बँटवारे के बाद और ज़्यादा मुश्किलों का सामना था। डॉ साहब की जवानी के दिन थे। बहुत-सी इल्मी मजलिसों में मुस्लिम लीडर्स की बातचीत शरीक होते थे, जिसका सेंट्रल थीम मुल्क और मिल्लत की मौजूदा सूरते-हाल पर तब्सिरा होता था और मुस्तक़बिल में और ज़्यादा तबाही व बर्बादी और ज़िल्लत व रुस्वाई की पेशनगोइयाँ होती थीं।
डॉक्टर साहब एक मसीहा थे। किसी मरीज़ को देखकर तड़प जानेवाला इन्सान जब पूरी क़ौम की बीमारी की सूरते-हाल सुनता और देखता तो बेचैन हो जाता था। अँधेरे मुस्तक़बिल का ख़याल ही दिन का सुकून और रात का चैन व आराम छीन लेता था। इसी बेकली में दिन-रात गुज़रते रहे। कुछ साल इसी उधेड़-बुन में गुज़र गए। 1964 में आप इस नतीजे पर पहुँचे कि क़ौम का रौशन मुस्तक़बिल सिर्फ़ क़लम की नोक से ही लिखा जा सकता है। आपको ये बात समझ में आ गई कि क़ौमों का उठना और उनका गिरना संख्या के ज़्यादा या कम होने और क़िले और महलों की शान व शौकत में नहीं है, बल्कि किताब और क़लम से जुड़ने में है।
आपने रौशन मुस्तक़बिल की बुनियाद रखने का फ़ैसला किया और 1964 में जस्टिस बशीर अहमद सईद और डॉक्टर पी के अब्दुल-ग़फ़ूर के साथ मिलकर आल इंडिया मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी क़ायम की। दो साल की मेहनत के नतीजे में होसला अफ़ज़ा नतीजे हासिल हुए। इसको सामने रखकर आपने 1966 में बेंगलोर में अल-अमीन एजुकेशनल सोसाइटी की बुनियाद डाली।

अल-अमीन एजुकेशनल सोसाइटी के ज़रिए आपने तालीम का चिराग़ रौशन किया। हमराही मिलते चले गए। अपना सारा सरमाया इस काम में लगा दिया। नेक दिल बीवी ने अपना ज़ेवर ख़ुशी-ख़ुशी क़दमों में लाकर डाल दिया। इससे भी काम न चला तो बीवी ने अपने मायके से मिलने वाली विरासत भी डॉक्टर साहब के हवाले कर दी। वो शख़्स जिसकी परवरिश बड़े ऐश व आराम में हुई हो जिसने ख़ुद ऊँची तालीम हासिल की हो और जिसके पास दुनिया के तमाम आराम हासिल करने के ज़रिए हों। जो अगर चाहता तो कुछ ही मरीज़ों की नब्ज़ देखकर ही हज़ारों और लाखों रुपये कमा सकता था उस शख़्स को जब क़ौम की परेशान हाली का एहसास हुआ तो ऐसा लगा कि सर सय्यद की रूह उसमें समा गई है और उसने उनके नक़्शे-क़दम की पैरवी का फ़ैसला कर लिया।
डॉक्टर साहब को दर्जनों अवार्डों से नवाज़ा जा चुका है। वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी सहित कई यूनिवर्सिटी के अहम् पदों पर रह चुके हैं। बड़े लोगों की बड़ाई और उनके क़द की ऊँचाई देखने वालों को ये भी देखना चाहिये कि वो जिस रास्ते पर चलते हैं वो कितने बुलन्द मक़सद वाला है और उस रास्ते पर कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अल्लाह जब किसी इन्सान को बुलन्दी अता करता है तो यूँ ही नहीं अता कर देता, बल्कि उसके त्याग और उसकी क़ुर्बानियों के बदले में अता करता है। क़ौम की फ़लाह और कामयाबी का बीड़ा उठाने वालों के रास्तों में फूलों से ज़्यादा काँटे आते हैं। हौसला बढ़ाने वाले जुमलों से ज़्यादा ताने और व्यंग्य आते हैं।
डॉक्टर साहब की ज़िन्दगी हमारे सामने है। अब तक वो ज़माने की 86 बहारें देख चुके हैं। उन्होंने 1966 में जो योजना बनाई थी वो शायद इतनी बड़ी न हो जितना बड़ा आज उनका काम है। ये सब उनके मुख़लिसाना जिद्दोजुहद का नतीजा है। अगर हम उनके काम का जायज़ा लें और उनके असरात का हिसाब लगाएँ तो हैरत से आँखें खुली रह जाती हैं। इस अकेले आदमी ने तालीम के लिये दर्जनों कॉलेज और स्कूल क़ायम किये, मकतबों और मदरसों को गाइड किया।
ग़रीब स्टूडेंट्स को स्कॉलरशिप जुटाईं, ऊँची तालीम के मैदान में मुल्क का पहला मुस्लिम मेडिकल कॉलेज बीजापुर में क़ायम किया, इंजीनियरिंग कॉलेज खोले, सेहत के बरक़रार रखने के लिये डिस्पेंसरी, क्लिनिक, शिफ़ाख़ाने और अस्पताल क़ायम किये, खेलों को बढ़ावा देने के लिये अल-अमीन एथलीट क्लब बनाए, मिल्लत की माली बेहतरी के लिये अमानत बैंक, हाउसिंग सोसाइटियाँ, बिना-सूदी स्कीम चलाईं। आज उनके 250 से ज़्यादा इदारों से लाखों पास-आउट रोज़गार से लगे हुए हैं। ग़रज़ इस अकेली जान ने अपने जॉनिसारों के साथ मिलकर और सियासी लीडरशिप से अच्छे रिश्ते क़ायम रखते हुए ज़िन्दगी के हर शोबे में मिसाली कारनामे अंजाम दिये।

बाबा-ए-तालीम डॉक्टर मुमताज़ साहब ने दक्षिण भारत के साथ-साथ पूरे देश पर तवज्जोह दी। इन्होंने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद और बंगाल के मुर्शिदाबाद पर इतनी ही तवज्जोह दी जितनी केरल पर दी। इन्होंने अगर दक्षिण भारत के लोगों की मदद की तो उत्तरी भारत में, नागपुर, जयपुर, अहमदाबाद, अमरोहा, कानपुर, नार्थ-ईस्ट में आसाम और कलकत्ता वग़ैरा के लिये भी रक़में जुटाईं। ये अलग बात है कि केरल के लोगों ने उनके ज़रिए दी गई रक़म पाँच लाख को पाँच हज़ार करोड़ और कलकत्ता के लोगों ने पाँच करोड़ में बदल दिया, जबकि कुछ इलाक़ों में पाँच लाख भी डूब गए।
आज इनकी तहरीक पूरे देश में काम कर रही है। इनसे तरबियत पाकर बंगाल में डॉक्टर नूरुल-इस्लाम साहब के ज़रिए अल-अमीन मिशन शुरू हुआ। केरल में टी पी एम इब्राहीम ख़ान और पुणे महाराष्ट्र में पी ए इनामदार साहब ने मोर्चा संभाला और ख़ाकसार ने सहसवान उत्तर प्रदेश में अल-हफ़ीज़ एजुकेशनल सोसाइटी क़ायम की। इनके अलावा दर्जनों तालीमी तहरीकों ने आपसे गाइडेंस हासिल की और लगातार कर रहे हैं।
इन तमाम कामों के पॉज़िटिव असरात का नतीजा है कि दक्षिण भारत में साक्षरता के अनुपात में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है। माली सूरते-हाल भी बेहतर हुई है, अपराध में भी कमी आई है। दक्षिण भारत के लोग तमाम मैदानों में पूरे देश के लीडर्स बने हुए हैं। अगर ये कहा जाए कि मुल्क और मिल्लत की ख़ुशहाली में ख़ास तौर पर दक्षिण भारत में डॉक्टर मुमताज़ अहमद ख़ाँ साहब के ज़रिए उठाए गए क़दमों का अहम किरदार है तो बे-जा (अतिशयोक्ति) न होगा।
आम तौर पर हम लोग किसी शख़्सियत के दुनिया से चले जाने के बाद उसकी बड़ाई और बुलन्दी को तस्लीम करते हैं। डॉक्टर मुमताज़ साहब के ताल्लुक़ से क़लम उठाने का मेरा मक़सद ये है कि हम उनके कारनामों को उनकी ज़िन्दगी में ही जानें, उनकी तहरीक से फ़ायदा उठाएँ, उनके नक़्शे-क़दम की पैरवी करें, ताकि अपने आसपास का माहौल रौशन हो।

1966 में डॉक्टर मुमताज़ साहब के ज़रिए लगाए हुए पेड़ों पर आज 55 साल बाद ख़ूब फल आ रहे हैं, जिससे ख़ास तौर पर दक्षिण भारत के लोग फ़ायदा उठा रहे हैं, अगर उत्तर भारत के लोग आज कुछ पौधे लगाएँ तो उम्मीद है कि आने वाले 50 साल बाद मुल्क और क़ौम दोनों को कभी न ख़त्म होने वाली बुलन्दी हासिल हो जाए। डॉक्टर साहब के यहाँ आज भी काम करने वालों के दरवाज़े खुले हुए हैं। उन्होंने 2014 में उत्तर प्रदेश के लोगों की तरबियत के लिये तीन दिन का एक उ० प्र० एजुकेशनल वर्कशॉप भी किया था, जिसमें उत्तर प्रदेश के 80 लोग मेरी निगरानी में शरीक हुए थे।
डॉक्टर साहब की ज़िन्दगी का दारोमदार अल्लाह पर कामिल यक़ीन, पहाड़ जैसा सब्र और बर्दाश्त, पुख़्ता इरादा, कामों को लगातार करते रहने की आदत और बे-जा तनक़ीद (आलोचना) को नज़र अन्दाज़ करना है।
डॉक्टर साहब की ज़िन्दगी ज़िक्र किये गए छः उसूलों से पहचानी जाती है। अल्लाह डॉक्टर साहब का साया देर तक सलामत रखे, काश! हमें उनके नक़्शे-क़दम चूमने का सौभाग्य मिल जाए।
क्या लोग हैं जो राहे-वफ़ा पर चला किये।
जी चाहता है नक़्शे-क़दम चूमते चलें॥