हकीम सुलेमान ख़ान “तूर”
ग़ज़ल
मुझको साक़ी ने कभी जाम ने समझा ही नहीं |
आज तक गर्दिश ए अय्याम ने समझा ही नहीं ||
उस हवेली से मुझे इतनी मोहोब्बत क्यों है |
उस दरीचे ने कभी बाम ने समझा ही नहीं ||
कामयाबी ने तो समझाया हमेशा इस को |
बात को हसरत ए नाकाम ने समझा ही नहीं ||
उनकी तज़लील से क्यों लुत्फ़ मुझे आता है |
ये कभी लज़्ज़त ए दुश्नाम ने समझा ही नहीं ||
” तूर ” जुर्मों की सज़ा काट के लौटा हूँ अभी |
जुर्म ए ना करदा के इलज़ाम ने समझा ही नहीं ||
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