अवाम को भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ समझते हुए किसी मदारी के खेल से प्रभावित हो कर ख़ुद को उसके सुपुर्द नहीं कर देना चाहिए

देश में हर तरफ मैदाने हश्र का मंज़र है इसकी उम्मीद हमारे हुक्मरान को नहीं थी की रब पल में पोल खोलकर रख देगा और न जनता को ऐसी उम्मीद थी कि भारत जैसे विशाल देश में स्वास्थय संस्थान इतने खोखले साबित होंगे कि एक हलकी सी हवा से उखड़ जाएँगे। सेहत के मामले में भारत को दुनिया में भरोसे का मक़ाम हासिल है, यहाँ की डिग्रियों को अमेरिका और ब्रिटेन में भी सम्मान की निगाह से देखा जाता है। यहाँ के अस्पतालों में विदेश के मरीज़ भी इलाज के लिए बड़ी संख्या में आते हैं। लेकिन यह ज़िक्र आम हालात का है, आपातकालीन हालात में भारत के अस्पतालों की व्यवस्था और हुक्मरानों का इंतिज़ाम कितनी नाज़ुक डाली पर टिका है इसका अंदाज़ा इन दिनों ख़ूब हो रहा है।
रोज़ाना सेकड़ों मरीज़ केवल ऑक्सीजन की कमी से मर जाते हैं, ऐसा नहीं है कि देश में ऑक्सीजन के भण्डार न हों, या कम हों, भण्डार बहुत और काफ़ी हैं, कुछ और अधिक ऑक्सीजन भी तैयार की जा सकती है मगर हुक्मरानों की ना-अहली (निकम्मापन) ने सब कुछ बर्बाद कर दिया है। ऐसा मालूम होता है कि पिछले सत्तर साल में हमने अपने देश में ज़रूरी बुनियादी सुविधाओं के लिए कुछ ख़ास नहीं किया है और इधर सात-आठ साल तो जुमले बाज़ी में गुज़ार दिये। अगर कुछ किया है तो वो केवल कुर्सी और सत्ता की राजनीति, कभी पड़ौसी देश से सीमा पर झड़प करके जनता की सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है, कभी ज़ात-पात और मंडल-कमंडल के नाम पर, कभी बाबरी मस्जिद और राम मंदिर के नाम पर, आगे भी काशी और मथुरा के नाम पर सत्ता बचाए रखने की प्लानिंग है।
तालीम, सेहत, रोज़गार, ट्रांसपोर्ट, सुरक्षा, अमन व सुकून, ख़ुशहाली, वैज्ञानिक खोज, न्याय और इन्साफ़ क़ायम करना, देश के लोगों के बीच ख़ैर-सगाली वग़ैरा तो कभी हमारे एजेंडे का हिस्सा ही नहीं रहे। अलबत्ता मीडिया मैनेजमेंट का हुनर हम ख़ूब जानते हैं, जिसके ज़रिये शाइनिंग इंडिया की चकाचौंध में जनता को धोका दिया जाता है, कभी मेक इन इंडिया का नारा लगा कर नौजवानों को पकोड़ा तलने की सीख दी जाती है। ज़रा सी चीन ने क्या आँख दिखाई कि भारत का मेक इन इंडिया सिस्टम औंधे मुँह गिर पड़ा, कभी स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर देश की तक़दीर पर झाड़ू फेर दी जाती है इसलिए कि सड़कों, नालियों और गली कूचों की गन्दगी की सूरते-हाल तो पहले से भी ज़्यादा बदतर है। आत्म निर्भर भारत और गुड-गवर्नेंस की पोल ऑक्सीजन संकट ने खोल दी है। कोरोना जैसी महामारी को भी हलके में लिया जाता है, बीमारी में बढ़ोतरी के बावजूद दिये जलाकर रौशनी की गई, ताली और थाली बजवाई जाती है, गोमूत्र और गोबर को दवा बताया जाता है।
अगर आप स्वतन्त्र भारत का राजनीतिक इतिहास उठा कर देखेंगे तो कहीं भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि हमारे राजनेता और हुक्मराँ देश और देशवासियों के सच्चे शुभ-चिन्तक हैं। बल्कि ये हुक्मराँ लीडर्स के भेस में लुटेरे साबित हुए हैं, दिवंगत राजीव गाँधी ने ख़ुद माना था कि सौ रुपये में से पंद्रह रुपये भी आम आदमी तक नहीं पहुँचते। स्विस बैंकों में हमारे सफ़ेद नेताओं का काला धन जमा है, बोफ़ोर्स तोपों की घन-गरज अभी ख़ामोश भी नहीं हुई थी कि रफ़ैल का शोर सुनाई देने लगा। सरकारी कंपनियों को ठिकाने लगा कर अडानी और अम्बानी को फ़ायदा पहुँचाने का खेल जारी है, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, लाल क़िला और ताज महल बेचने जा रहे हैं। लोग ऑक्सीजन की कमी से मौत को गले लगा रहे हैं और दिल्ली के मुखिया करोड़ों रुपये विज्ञापन पर ख़र्च कर रहे हैं, ज़ाहिर है जब ग्राम प्रधान से ले कर प्रधान मंत्री के पद पर रहज़न बैठ जाएँ तो जनता को बग़ैर ऑक्सीजन के ही जीना पड़ेगा, जो नामुमकिन है।
आज जब अस्पतालों की चीख़-पुकार, शमशान घाटों की लपटें, क़ब्रिस्तानों से वापिस होने वाली मैयतों को देखता हूँ तो आँखों से आँसू नहीं ख़ून टपकने लगता है। क्या वीर अब्दुल हमीद ने इसीलिए जान दी थी कि उसका बेटा ऑक्सीजन की कमी से मर जाएगा? क्या रेमडिसीवर की काला बाज़ारी और ऑक्सीजन की लूटमार हमारी “प्राचीन सभ्यता” का मज़ाक़ नहीं उड़ा रही हैं। अमेरिका में हाउडी मोदी और गुजरात में नमस्ते ट्रम्प के कार्यक्रम से तो लोग समझते थे कि वास्तव में भारत विश्व गुरु बनने के आउटर पर खड़ा है, लेकिन ट्रम्प की हार ने तो हमें किसी की शागिर्दी के लायक भी नहीं छोड़ा है।
मैं सोचता हूँ कोरोना की ये आफत हमारे नैतिक दिवालियेपन की सज़ा है, ये सज़ा है न्यायपालिका की ना-इन्साफ़ियों की, ये ख़ुदा के घर को बुत-कदे में बदलने की सज़ा है, ये कश्मीरियों की सिसकियों की सज़ा है, ये नजीब की माँ के आँसुओं की सज़ा है, या फिर अख़लाक़ जैसे मासूमों की चीख़-पुकार का अंजाम है, ये ज़ालिमों को उनके ज़ुल्म की और मज़लूमों को चुपचाप ज़ुल्म सहने की सज़ा है। किसी ने सच ही कहा है कि ज़मीन की आफ़त से तो तदबीरों से मुक़ाबला किया जा सकता है मगर आसमानी आफ़तें तो आसमान वाले को राज़ी करके ही दूर की जा सकती हैं। इसलिए हमारे हुक्मरानों को तौबा करना होगी, उन्हें ज़ुल्म व नाइन्साफ़ी, तअस्सुब और हसद से रुकना होगा, राजा जब अपनी प्रजा में भेदभाव करने लगता है, जब राजा अपना राजधर्म छोड़ देता है तो आसमानी मुसीबतें टूट पड़ती हैं।
हमारे प्रधानमन्त्री की अनुभवहीनता और आर-एस-एस की मुस्लिम दुश्मनी ने देश की जड़ें तक खोखली कर दी हैं। जिस आदमी ने गुजरात से बाहर का मंज़र न देखा हो उसे प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया, उसने सीखने के बजाए सिखाना शुरू कर दिया, वो हवा के कन्धे पर सवार होकर दुनिया की सेर सपाटे को निकल पड़ा, उसने पार्लियामेंट और असेंबली के इलेक्शन तो छोड़िये लोकल बॉडीज़ के इलेक्शन तक में अपना एक्टिव रोल अदा करके प्रधानमन्त्री के पद और गौरव को ठेस पहुंचाई। उसकी नादानियों ने दोस्त कम दुश्मन ज़्यादा पैदा कर दिए जिसके नतीजे में सीमाएँ असुरक्षित हो गईं और सब पड़ौसी हम पर ग़ुर्राने लगे, उसकी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की इच्छा ने भारत को इस मक़ाम पर ला कर खड़ा कर दिया कि कोई भी देश हमारी सुनने को तैयार नहीं।
उसने नोट बंदी करके देश को आर्थिक दिवालियेपन तक पहुंचा दिया, उसकी तालाबन्दी ने शमशान तक पहुंचा दिया, उसको अपने मन की बात भी ज़बान से बताना पड़ी क्योंकि उसका अमल उसके मन का गवाह न बन सका। उसकी आबरू को बचानेवाली आर एस एस के पास केडर तो था मगर हुक्मरानी के आदाब नहीं थे, उसने अपनी राजनीति की बुनियाद ही दुश्मनी की टेढ़ी ईंट पर रखी, वह राम-राज्य के सपनों को साकार करने में लग गई, उसने हिन्दू कॉलोनियों में मुसलमानों के प्रवेश पर पाबन्दी के बोर्ड लगाए, उसने राम के मंदिर में प्यासे को पानी के बजाए ख़ून पिलाया।
हालाँकि उसने हुकूमत के काले कारनामों को छिपाने और उसकी हिमायत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, ये आर एस एस का मीडिया मैनेजमेंट ही है कि देश की तबाही को अपनी खुली आखों से देखने के बावजूद उसके भक्त मोदी जी की जय-जयकार करते हैं।
सरकार हर मोर्चे पर नाकाम हो चुकी है, देश की जनता के लिए अच्छे दिन एक सपना बन गए हैं, सरकारें जनता के विकास के बजाए अपनी सत्ता को मज़बूत बनाने में लगी हुई हैं, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साख ख़राब हो चुकी है। ये सब कुछ इसलिए हुआ है कि हुक्मरानों ने त्याग और बलिदान का वो रास्ता ही त्याग दिया है जो उन्हें शान्ति और न्याय की ओर ले जाता है जिसकी मंज़िल ख़ुशहाली है। लेकिन जनता को भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ समझनी चाहिएँ किसी मदारी के खेल से प्रभावित हो कर ख़ुद को उसके सुपुर्द नहीं कर देना चाहिए।
अभी क्या है ,एक बूँद को तरसेगा मैख़ाना।
जो अहले-ज़र्फ़ के हाथों में पैमाने नहीं आए