
आज़ाद भारत में आंदोलन का इतिहास बताता है , तत्कालीन सरकारों को जनता के संवैधानिक अधिकारों की मांग के आगे झुकना पड़ा था , जबकि वर्तमान सर्कार किसी भी क़ानून को बनाने या हटाने के लिए 1 इंच भी पीछे हटने से मना करती है ,इसी लिए आंदोलनकारियों ने इस सरकार को दमनकारी सरकार या हिटलरशाही सरकार का नाम दिया है .

हालिया CAA और NRC का 2019 का आंदोलन जो विश्व्यापी था . और आज दिसम्बर 2020 का किसान आंदोलन भी विश्व्यापी है , और ये दोनों आंदोलन BJP के शासन में हुए .अभी तक वो अपने बनाये क़ानून से पीछे न हटने पर अडिग है .जबकि जनता के संवैधानिक अधिकारों के आगे झुकना कोई अपमान की बात नहीं बल्कि यह सरकारों का सम्मान और प्रतिष्ठा को बढ़ता है .
इससे पहले भी एक किसान आंदोलन 1988-89 में हुआ उस समय तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गाँधी थे .महिनेद्र सिंह टिकैत की अगुआई में वो आंदोलन बहुत विशाल था .25 अक्टूबर 1988 को महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में दिल्ली के बोट क्लब पर 14 राज्यों के 5 लाख किसानों ने डेरा जमाया लिया था। किसानों के समूह ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक कब्जा कर लिया था।
आंदोलन को चलाना और कु चलना दोनों में महारत है सत्ताधारी पार्टी और उसकी सरपरस्त संस्था RSS को . लेकिन एक चूक हुई उनसे , हिन्दू राष्ट्र एजेंडे को जल्दी जल्दी पूरा करने की उजलत में पार्टी और संस्था के मंसूबों और नीयत की पोल खुल गयी . और अब देश समझ गया कि हिन्दूराष्ट्र विचारधारा के दूरगामी परिणाम देश को तबाह करदेंगे , इसलिए पूरा देश अब इस विचारधारा के खिलाफ बोल रहा है . लेकिन इस पूरे Plan में से नफ़रत और साम्प्रदायिकता को निकाल देते तो कामयाब हो सकते थे ,हिन्दू राष्ट्र की आधार शिला नफ़रत और क़त्ल तथा साम्प्रदायिकता पर रखने की योजना ने देश को पहले ही अलर्ट कर दिया .अगर देश को हिन्दू राष्ट्र की बुन्याद में त्याग,तपस्या, सेवा ,प्यार और मोहब्बत तथा इंसाफ़ मिला होता तो यह काल भी लम्बा चल सकता था , मुग़ल वंश की तरह .मगर रब को शायद यह मंज़ूर ही नहीं , क्योंकि ना इंसाफ़ी और ज़ुल्म की उम्र बहुत कम होती है .
पूरी दिल्ली ठप हो गई थी। किसानों ने अपने ट्रैक्टर और बैल गाड़ियां भी बोट क्लब में खड़े कर दिए थे।

ये सब उनके प्रदर्शन के अधिकारों को लेकर सरकार की तरफ से ढील थी .हालाँकि किसानों को रोकने के लिए लोनी बॉर्डर पर पुलिस ने फायरिंग भी कर दी जिसमें दो किसान राजेंद्र सिंह और भूप सिंह की मौत हो गई थी ।इसके बाद पुलिस और सरकार की काफी किरकिरी हुई और उधर किसान भी उग्र हो उठे। बावजूद इसके उन्हें दिल्ली जाने से कोई रोक नहीं पाया था .
आपको एक और मज़े की बात बताते हैं , उस वक्त बोट क्लब में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि के लिए तैयारियां चल रही थीं , मंच तैयार था। किसान उसी मंच पर बैठ गए। तब टिकैत ने केंद्र सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार उनकी बात नहीं सुन रही इसलिए वे दिल्ली आए हैं। इसके बाद किसानो का यह आंदोलन 7 दिन तक चला ।
टिकैत के नेतृत्व में 12 सदस्यीय कमिटी का गठन हुआ जिसने तत्कालीन राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष से मुलाकात की लेकिन कोई फैसला नहीं हो सका. आखिरकार केंद्र सरकार को किसानों के आगे झुकना पड़ा। तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने भारतीय किसान यूनियन की सभी 35 मांगों को मान लेने का आश्वासन दिया . जिसके बाद किसानो का आंदोलन 31 अक्टूबर 1988 को खत्म होगया .
चूंकि हम बात देश में आंदोलन के इतिहास पर कर रहे हैं इसलिए आपको बता दें

इससे पहले भी 1956-57 महाराष्ट्र राज्य के निर्माण के लिए बड़ा आंदोलन हुआ था , आंध्र प्रदेश में भाषा आधारित राज्य के निर्माण की मांग को लेकर पोटटू रामुलू नाम के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने आमरण अनशन शुरू किया . अनशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गई जिससे हंगामा खड़ा हो गया।
उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया । इस आयोग को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह ऐसा फार्मूला बनाए जिसके आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हो सके । आयोग ने सिफारिश रखी कि राज्यों का निर्माण भाषा के आधार पर हो । इसी के अनुसार अनेक राज्यों का गठन किया गया। परंतु यहाँ एक और मज़े की बात यह कि वर्तमान दोनों ही बीजेपी शासित प्रदेश मराठी और गुजराती भाषाओं के आधार पर राज्य नहीं बनाए गए।

इससे मराठी और गुजरती भाषियों में भरी ग़ुस्सा फूट पड़ा जो स्वाभाविक था , बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। उस समय भी महाराष्ट्र की मांग को लेकर लाखों लोगों ने दिल्ली के लिए पैदल मार्च किया था। ‘‘मुंबई सह महाराष्ट्र झाला पाहिजे” उस आंदोलन का नारा था। जब नेहरूजी से पूछा जाता था कि वे महाराष्ट्र और गुजरात राज्य क्यों नहीं बनने दे रहे हैं तो वे मजाक के लहजे में कहते थे कि मेरी एक बहन की ससुराल महाराष्ट्र में है और दूसरी बहन की गुजरात में। मैं नहीं चाहता कि वे अलग-अलग राज्यों में रहें।हालाँकि यह मज़ाक़ का मुद्दा नहीं था , इसके बावजूद मराठी भाषियों की जोरदार मांग के आगे उन्हें झुकना पड़ा था ।
दूसरा महान आंदोलन तमिलनाडु में हुआ।उसकी वजह थी भाषा ही थी , आपको हम बता दें कि 1965 में संविधान में एक संशोधन किया गया था की अब अंग्रेजी ज़बान , लिंक लैंग्वेज नहीं रहेगी। यानी सरकारी दफ्तरों में काम काज अंग्रेजी में ना होकर हिंदी में होने लगेगा। इस बात को लेकर तमिलनाडु में भारी आक्रोश पैदा होगया था।वजह थी हिंदी ज़बान में काम काज का चलन , तमिल इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सके . पूरे तमिलनाडु में आंदोलन प्रारंभ हो गया। बड़े नगरों में हिंसक घटनाएं हुईं। हवाई जहाजों, बसों और ट्रेनों का आवागमन ठप्प कर दिया गया था । उन दिनों लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे । शास्त्रीजी ने हालात कि नज़ाकत और संवेदनशीलता को भांपते हुए इंदिरा गांधी को तमिलनाडु भेजा ।

उस समय स्थिति बहुत गंभीर थी। पूरा तमिलनाडु जल रहा था। आक्रोषित लोग मद्रास हवाई अड्डे को घेरे हुए थे। इंदिरा गांधी ने मद्रास पहुंचने से पहले यह संदेश भेजा कि किसी पर भी बिना उसकी मर्जी के कोई भाषा लादी नहीं जाएगी। ज्योंही उनका यह संदेश पहुंचा आंदोलनकारियों का गुस्सा ठंडा पड़ गया।इसके बाद आंदोलनकारियों और सरकार के बीच बात चीत सफल होगई , शांति बहाल होगई .लोकतंत्र और संविधान की जीत हुई .
किन्तु आज आंदोलनकारियों से कहा जाता है की सरकार १ इंच पीछे नहीं हटेगी , तो क्या देश इस हठधर्मी को कांग्रेस और बीजेपी के रवैयों को सामने रखकर समझने कि कोशिश करेगा ? या देश की जनता अल्पसंख्यक तथा दलित विरोधी या समर्थक सरकार में फ़र्क़ करके देश को एक और विभाजन की ओर धकेल देगी , दुसरे शब्दों में दुश्मन की नीति को सफल बनवा देगी ? .
यही तो चाहता है न दुश्मन 1972 में हमारा विभाजन किया अब हम तुम्हारा विभाजन करके दम लेंगे , और पिछले ७ वर्षों में जिस ज़बान और शैली का इस्तेमाल हमारे सत्ता पक्ष के नेता कर रहे हैं वो नफरत के आधार पर विभाजन की आहट देता है .जिसको वक़्त रहते देश की जनता को समझना होगा .क्योंकि कोई भी जंग नफरत से नहीं सहयोग और एकता से ही जीती जा सकती है . Nation First की बात करने वाले नफरत की राजनीती से जल्द बाज़ आएं वरना जब तक नफरत बोने वालों की आँख खुलेगी तब तक काफी देर हो चुकी होगी .