भिकारी ले उड़ा लाखों की ज़कात और …..
मैं एक मस्जिद के बाहर नमाज़ से फ़ारिग़ होकर आया तो देखा कुछ भिखारियों में अच्छा ख़ासा झगड़ा होरहा है , और एक दुसरे से दस्तो गिरेबान(मार पीट) रहे हैं , और वो तूफ़ान गलियां और बदतमीज़ी की कान पे हाथ रकने पड़े .तहक़ीक़ से पता चला की भीक ज़्यादा लेने या पहले लेने में यह झगड़ा हुआ है , अच्छा मैं मस्जिद से काफी देर से बाहर आया तब तक तक़रीबन सभी नमाज़ी रुखसत होचुके थे .
अब और नमाज़ी मस्जिद से बाहर आने की उम्मीद भिखारियों को नहीं रही थी तभी मैं नाज़िल (अवतरित) होगया , मैने भी जेब में हाथ डाला और उन भिखारियों में से सबसे मजबूर को देखने लगा ज्यों ही उसके हाथ में मैने कुछ दिया झट्ट दूसरी एक फकीरनी आई और कहने लगी साहिब मुझे भी ,और मेरे पीछे पीछे आती रही मैने कहा तुम जाओ मुझे जिसको देना था देचुका ,
वो अधेड़ उम्र की फकीरनी ग़ुस्से से बोली जिसको आप देकर आये हो रमज़ान से १० रोज़ पहले अपनी बेटी की शादी में 3 लाख का सजावट कराया था और दामाद को गाडी दिया है दहेज में . और वो ग़रीब नहीं साहेब वो बहुत अमीर आदमी है में लौटकर वापस आया और पता किया उसने तो कुछ नहीं बताया एक दुसरे फ़क़ीर ने भी उसकी कहानी लगभग वैसे ही बताई . मुझे बहुत हैरत हुई और पछतावा भी .
समाज में फ़क़ीर कौन?
हमको यह समझने की भी ज़रुरत है कि असल में फ़क़ीर और मिस्कीन कौन लोग हैं , वो शख्स जिसके पास रहने को घर है मगर गुज़र बसर के लिए पैसा नहीं है , या कारोबार भी है मगर उसमें नुकसान या घाटा होगया है और उसकी इज़्ज़त दाओ पर लगी है , या कोई नाजाइज़ मुक़द्दमे में फसा दिया गया है और उसके पास मुक़दददमा लड़ने केलिए पैसा नहीं है ,या वो शख्स जो साहिब इ निसाब नहीं है यानी जिसपर ज़कात या क़ुर्बानी वाजिब नहीं है , ऐसे सभी लोग फ़क़ीरों में आते हैं .
मिस्कीन वो लोग हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है और इंसानी ज़रूरतें लगी हैं ,इसके अलावा मिस्कीन और फ़क़ीर या ज़कात और सड़के के मुस्तहिक़ लोगों कि फेहरिस्त या सूची हदीस कि किताबों से देखी जासकती है.
दोस्तों आज हमने ज़कात को अपने ऊपर फ़र्ज़ से ज़्यादा बोझ समझा है , अव्वल तो मुस्लमान ज़कात निकालने में कंजूसी करता है और जो लोग ज़कात देते भी हैं तो पेशेवर भिखारियों को देकर बोझ उतार देते हैं . और ज़कात को भिकारियों में बाँटकट हम समझते हैं ज़कात अदा हो गयी .
फिर इसपर एक तुर्रा यह भी रहता है की ज़िंदगी भर वो शख्स जिसको ज़कात दी है जहां देखे सेठ जी को सलाम ठोके यानी उसपर गोया एहसान जताना है . जबकि ज़कात के बारे में क़ुरआन करीम कहता है “तुम अपनी ज़कात फ़ुक़रा और मसाकीन में तक़सीम करो ” अब ये फ़ुक़रा यानि फ़क़ीर और मिस्कीन तलाश करने से मिलेंगे .
मगर हम तलाश जब करेंगे जब हम ज़कात को दुसरे फ़र्ज़ों की तरह अपनी ज़िम्मेदारी समझेंगे , तभी इसको मुस्तहिक़ीन (असल इसका अधिकार रखने वालों ) तक लेकर पहुंचेंगे और जो लोग हमको मुस्तहिक़ मिल गए और उन्होंने क़ुबूल भी करलिया तो इसपर हमको शुक्र बजा लाना चाहिए की परवरदिगार ने हमारी ज़कात क़ुबूल करली .
दरअसल मिस्कीन और फ़ुक़रा तलाश करने से मिलेंगे और ये वो लोग हैं जो बज़ाहिर अपने को फ़क़ीर या मिस्कीन दिखने नहीं देते और हमेशा हर हाल में अपने रब का शुक्र करते रहते हैं .
असल में भिकारी लाखों कि ज़कात अमीरों से झपटकर नशेबाजी और अय्याशी में उड़ा देता है और ज़रुरत मंद शरीफ और हयादार फिर मजबूर और मक़रूज़ रह जाते हैं. इसलिए अमीर को चाहिए कि वो अपनी ज़कात पहले अपने ग़रीब रिश्तेदारों , फिर पड़ोस और फिर दुसरे मुस्तहिक़ीन तक पहुंचाने का काम करे .
ज़कात का मक़सद
अक्सर हमारे मालदार इसको ग़रीबों पर एहसान समझते हैं और अक्सर इसके असल मक़सद को ही नहीं जानते की इसको फ़र्ज़ क्यों क़रार दिया गया .दरअसल ज़कात मालदारों के माल को पाक करने और उसको नुकसान से बचाने के लिए है , और साथ ही जो आपके फुकरा और मसाकीन भाई हैं उनकी मदद का जरिया है . हदीस में आता है की ज़कात और सदक़ात अपने ग़रीब रिश्तेदारों या पड़ोसियों को दिया करो .
हम रिश्तेदारों और पड़ोसियों से बात ही नहीं करते और दुनिया ज़माने के भिखारियों को ज़कात में खरीदने के लिए नाम करते है . जबकि ग़रीब रिश्तेदारों को देने का दोगना अजर है एक तो ज़कात देने का और दुसरे सिला रेहमी (स्वभाव ) करने का .हालांकि इसी समाज में ऐसे भी लोग मौजूद हैं जो हकीकत में अपनी ज़कात देने का हक़ अदा करते हैं मगर बहुत कम .
ज़कात बन्दों से मांगने का सिलसिला ख़त्म करने का निज़ाम है , अगर समाज के फ़क़ीरों और मिस्कीनों को उनकी साल की ज़रुरत भर राशन और कपडा मिल जाए तो उनको सड़क पर हाथ फैलाने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी .
देश की ग़रीबी मिटाने का फार्मूला
ज़कात सिर्फ इस्लाम का एक रुक्न ही नहीं बल्कि देश की अर्थ वयवस्था को बनाये रखने का भी कामयाब मन्त्र है .यह सिर्फ एक ही फ़र्ज़ ऐसा मन्त्र है अगर इसपर देश अमल करले तो देश विकसित और समृद्ध होजाये , मगर अफ़सोस इस्लाम का झंडा उठाने वाले ही अभी किसी एक फ़र्ज़ पर भी कारबन्द नहीं हैं .
आंकड़ा यह है की हमारे देश में ऐसे मालदारों की तादाद जिनपर ज़कात वाजिब होती है देश की आबादी के लगभग 35 % है . इन 35 % के 40 % यानी लगभग 20 करोड़ ऐसे अमीर हैं जिनकी साल कि बचत 2 करोड़ है जिसकी ज़कात की रक़म लगभग 10 ,0000 करोड़ बैठती है , बाक़ी 60 % अमीरों की बचत सालाना 2 से 5 लाख है और जिसकी ज़कात की रक़म लगभग 40 ,000 करोड़ होती है . और कुल ज़कात का मीज़ान सालाना एक लाख चालीस हज़ार करोड़ बैठती है .यह देश कि कुल आबादी का हिसाब है .
अब यदि हर एक नागरिक का औसतन 500 RS प्रति दिन का खर्च माने तो यह एक वर्ष में एक लाख बायसी हज़ार पांच सो 1,82,500 बनता है .
ज़कात की यह प्रक्रिया समाज के सामजिक , आर्थिक और नैतिक ढाँचे को सुचारु बनाने में निहायत ही Important किरदार अदा करेगी .बचे एक साल के लिए ही केंद्रीय सरकार इसको तजुर्बे के तौर पर ही लागू करके देखले .
अब सवाल यह पैदा होता है कि जब नीरव मोदी , विजय माल्या , सुशील मोदी ,जैसे लोग जो देश को खोखला करने और आर्थिक संतुलन को बिगाड़ने पर तुले हों ,जिसमें सरकारी तंत्र का हाथ शामिल है और बड़े बड़े नेता लिप्त हैं तो ऐसे में ज़कात का ढाई प्रतिशत रक़म वसूली काफी मुश्किल होजाता है .
लेकिन जब सर्कार 18 % GST हर एक से निकलवा सकती है तो 2 . 5 % रक़म तो बहुत थोड़ी है जो आसानी से वसूली जासकती है .