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VISUAL COVERAGE OF SCENES OF INJURY OR DEATH A man carries an injured boy as he walks on rubble of damaged buildings in the rebel held besieged town of Hamouriyeh, eastern Ghouta, near Damascus, Syria, February 21, 2018.
*सीरिया और भारत*
सीरिया पर सोशल मीडिया में एक सैलाब आया हुआ है। वहां मरती इंसानियत पर हर कोई उदास है, फिक्रमंद है। मगर वहां के हालात से सबक़ लेने का रुझान कहीं नज़र नहीं आता। इस पर सितम यह है कि भारत के भी सीरिया बन जाने के इशारे दिए जा रहे हैं।
सीरिया में क्या हुआ? वहां एक अरब स्प्रिंग आई, जनता ज़ुल्म के ख़िलाफ सड़कों पर निकली और हुकूमत पर दबाव पैदा होने लगा।
मगर तभी दुनिया की हथियार लॉबी को वहां फायदा नज़र आया। जनता में हथियार बांटे जाने लगे। सऊदी अरब को वहां सुन्नी मुसलमान नज़र आने लगे। अमेरिका को ईरान को नीचा दिखाने का मौक़ा दिखाई दिया तो ईरान को वहां की शिया हुकूमत ख़तरे में महसूस हुई। रूस में भी अमेरिका से बदला लेने की उम्मीद जगी। इज़राइल ने तो वहां अपना ‘ख़लीफा’ ही क़ायम कर दिया। इस सारे हंगामे के बीच जनता के मुद्दे तो सिरे से नदारद ही हो गये और रह गये सिर्फ हथियार और सिसकती इंसानियत!
भारत को सीरिया बनने या बनाने की बात करने वाले थोड़ा सोचें कि वे क्या कह रहे हैं! अगर मुल्क की जम्हूरियत को थोड़ा भी नुक़सान पहुंचा और अराजकता फैली तो बहुत से मौक़ापरस्त उसी तरह भारत में हावी हो जाएंगे जिस तरह वे सीरिया में हुए। और इससे पहले जिस तरह वे अफ्रीका में हुए। आज अफ्रीका कंगाल है और मिडल ईस्ट बद्हाल है। क्या भारत भी उसी रास्ते पर चलेगा?
सांप्रदायिक अलगाव ने सीरिया को आज जिस मुक़ाम पर पहुंचा दिया है, भारत में भी उसकी ज़मीन तैयार है। कोई महाभारत की तैयारी की बात कर रहा है तो कोई सीविल वार की। और अब भारत के सीरिया बन जाने का अंदेशा भी ज़ाहिर किया जा रहा है।
ऐसे में देश की जनता, उसके हर तरह के लीडर्स, मज़हबी रहनुमा, संजीदा लोग और जनता के हक़ीक़ी मुद्दों पर काम करने वाली तंज़ीमों और संगठनों की ज़िम्मेदारी है कि वे भारत में सांप्रदायिकता का ज़हर न फैलने दें। सुन्नी-शिया, देवबंदी-बरैलवी, हिंदू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े, ब्राह्मण-दलित, वग़ैरह की सैंकड़ों दीवारों को ढहाकर ही आने वाले दौर को हम बेहतर बना सकते हैं। हम अलग अलग तरीक़े से सोचतें हैं, इसलिए हमारे विचारों में मतभेद हो सकता है। मगर हिंसा कोई रास्ता नहीं है। हिंसक दौर के बाद भी बातचीत के लिए दरवाज़े खोलने ही पड़ते हैं तो फिर ऐसा दरवाज़ा पहले ही से क्यों न खोल दिया जाए।
भारत को सीरिया बनने से रोकना है तो सीरिया के हालात से सबक़ लिया जाए। अक़लमंद वही है जो दूसरों की ग़लतियों से सबक़ लेता है न कि वह जो उन्हें दोहराने की ग़लती करता है।