सरदार दया सिंह
आज वोट मांगने का अंदाज़ उस कमज़र्फ का सा होगया है , जो मरने वाले की बेटी से कहता है की मैंने तेरे बाप की अर्थी को कांधा दिया था , अब तू मुझे वो दे जो में मांगू …..यानी वोट
राजशाही और लोकतंत्र में यही फर्क होता हैं जिस मानसिकता का सबूत मोदी और प्रियंका ने देश के सामने दिया हैं l चुनी सरकार केवल एक ट्रस्टी होती हैं उसे जनता का विश्वास कायम करना होता हैं , अमानत में ख्यानत का काम नही कर सकती यदि करती हैं तो उसे बने रहने का कोई हक नही होता .
आजकल अहल्लिया का एक serial sony tv पर दिखाया जाता हैं अहिल्लया का पति ( छोटे सूबेदार ) एक मोहिम जीत कर आते हैं उनको सम्मान मिलता हैं उसमें एक हार वह अपनी पत्नी को पति प्रेम में देना चाहते हैं उसकी पत्नी अहल्लिया उनको समझाती हैं कि वे ऐसा नही कर सकते, यह जनता का हैं हम तो केवल ट्रस्टी ही हैं , इस पर हमारा कोई हक नही .
मन मोहन सिंघ पूर्व प्रधान मंत्री के बारे में जब वे केवल एक अफसर थे वे सरकारी गाडी पर अपनी बेटी को भी नही बैठाते थे जब कि वह बस स्टाप पर इंतजार कर रही होती थी , ऐसा कहा जाता हैं परंतु यह शब्द क्या किसी प्रधान मंत्री के पद के अनुसार हो सकते हैं जो जनता के बीच जा कर चुनावी भाषण में यह बात कहे कि उस बुढ़ी मां ने कहा कि वह वोट मोदी को देंगी क्योंकि उसने उसका नमक खाया हैं l
मोदी जी से आग्रह हैं कि ज़ितना जल्दी हो सके ऐसे भाषण को लिखने वाले अथवा सलाह देने वाले से अपना पिंड छुडवा लें , हितकर होगा .
मुझे याद हैं राजीव गांधी को मरण सय्या पर पड़ी उनकी माता इन्दिरा गांधी के समय इतना कौन सा अहलाम उतर गया था कि यह कह दिया कि ” बड़ा पेड़ गिरता हैं तो धरती हिलती हैं ” किसी ने तो लिख कर दिया होगा जो उनका उनके जाने के बाद भी पिंड नही छोड़ पा रहा , तभी तो नेता अथवा statesman वही होता हैं ज़िसको अपने शब्दों और उनके भावों के अर्थ की समझ हों अन्यथा न तो वह नेता न ही statesman.
मैने चन्द्र शेखर को कयी बार सुना उनके दल में तो कभी नही रहा क्योंकि मैं राजनीति से परहेज ही करता रहा , वे धारा प्रवाह बिना लिखे बोलते थे परंतु शब्द चयन में कोई मुकाबला नही था , यह ज़रूरी नही कि कोई उनकी बातों से सहमत अथवा असहमत हो परंतु शब्द के अनर्थ न हो जायें यही नेता बनाती हैं .
सोनिया गांधी से भाजपा में क्यों खलबली मचती हैं वह तो हिन्दी भी बहुत ही कम समझती और जानती हैं फिर भी उसकी बात में दम होता हैं , कभी किसी ने सोचा होगा कि एक महिला जो विदेश से बहु बन कर लायी गई हो जिसके सामने उसकी सास इन्दिरा गांधी प्रधान मंत्री की हत्या हुई हो , जिसने अपने पति को उसी हालात में खोया हो वही 1997 में कांग्रेस की अध्यक्षा बन जाये सीधे तौर पर संघ (RSS ) से टकरा जाये वह भी उस समय जब राज सत्ता एक भाषण के माहिर अटल जैसे व्यक्तित्व जब देश को चमकता भारत (SHINE INDIA) का प्रचार किया जा रहा हो उस समय सत्ता छीन कर एक गैर राजनीतिक को दे दे और दस वर्ष , यदि उस समय मन्दिर मन्दिर का खेल न खेला होता तो कांग्रेस का कोई बदल नही था .
गांधी यह कहा करते थे दल हो या सरकार हो उसका नेत्रतव ऐसा हो जो उसे ट्रस्ट माने और खुद को ट्रस्टी यही हैं मूल मंत्र अन्यथा मोदी का नमक खाया हैं यह कहने से पहले यह सोच तो लिया होता यह देश का नमक हैं जो कर देश की जनता से वसूलते हैं , मेरा दावा हैं यदि कभी ऐसी भावना से चुनाव होने लगे तो बहुत कम लोग अपनी उमीद वारी दर्ज करवाने के उत्सुक होंगे और चुनावों पर धन खर्च होगा ही नही .
अब कोई कहें एक करोड रुपया खर्च होने का चुनाव आयोग ने हक दिया हैं तो क्या ज़रूरत पड़ी क्योंकि प्रबंधन तो चुनाव आयोग ने करना हैं कि चुनाव निष्पक्ष हों यदि उस ने अपने ट्रस्ट को गवाया हैं तो उसका कोई हक नही रह जाता कि उस का संचालन करे यही सभी संस्थानों पर लागू होता हैं l
फिर से आग्रह हैं कि संस्थानों की अहमियत बने नेता को ट्रस्टी बनने की शपथ लेनी होगी बस यही हैं भारत और भारतीयता जिसे निताओं ने खोया हैं , आज वे नेता नही क्या बन गए देखते देखते उन्हे अहसास करना होगा l