Editor’s Desk
Ali Aadil Khan
असल में कसी भी लोकतान्त्रिक देश में सियासत का मूल भूत मक़सद वोट का हासिल करना होता है . लेकिन लोकतान्त्रिक System में खराबी तब आई जब वोट के लिए विकास को नहीं बल्कि नफरत और मज़हब को मुद्दा बनाया गया . क्या आपने ३० साल पहले हार्ड कोर और सॉफ्ट हिंदुत्व , कट्टर और लिबरल मुस्लिम , आतंकी और पाकिस्तानी सिक्ख , लव जिहाद , UPSC जिहाद , चूड़ी जिहाद जैसे जुमले सुने थे ??…शायद नहीं , लेकिन आज सियासत का आधार ही ये जुमले बने हुए हैं .अगर यह सही है तो मैं कहता हूँ देश खतरे में है .अजीब बात यह है राष्ट्रभक्ति की बातें करने वाले नेता कभी यह बात नहीं कहते की देश खतरे में है वो कहते हैं हिन्दू खतरे में है , कहीं कहा जाता है मुस्लमान खतरे में है .जबकि ना इंसाफ़ी हर एक के साथ है ज़ुल्म का शिकार मुल्क का हर वर्ग है.
असल में मुल्क का बनना और बिगड़ना यह समुदायों और वर्गों के बीच आपसी भाईचारा और एकता पर निर्भर करता है जबकि एकता और भाईचारा सियासी बाज़ीगरों को रास नहीं आता . इसलिए वो समाज को वर्गों , जातियों और धर्मों में बांटकर रखना चाहते हैं .
भारत में राजनितिक पार्टियां या तो सांप्रदायिक कहलाती हैं या सेक्युलर , विडंबना यह है की सम्प्रायिक पार्टी अपने वोट को समेटने में कामयाब है जबकि नाम निहाद सेक्युलर पार्टियों का वोट बिखरा हुआ रहता है , इसलिए जब तक सेक्युलर वोट कंसोलिडेट नहीं होगा तब तक साम्प्रदायिकता की जीत होती रहेगी जबकि दोनों के अनुपात में 30 % और 70 % का बड़ा फ़र्क़ है .
मुल्क का विकास क़ौमों की तरक़्क़ी में पोशीदा है , किसी एक वर्ग या समुदाय की सफलता देश की सफलता का ज़ामिन नहीं हो सकता . दरअसल कोई भी सेक्युलर पार्टी देश में मज़लूम के मुद्दों पर इसलिए खुलकर नहीं बोलती के बहुसंख्यक या उच्च जात का वोट हाथ से निकल जाएगा .जबकि सांप्रदायिक पार्टी मज़बूती से ज़ालिमों के साथ खड़ी रहती है. देश की राजनीती और वोटरों के एक वर्ग की सोच में बड़ी खऱाबी यह आ गयी है कि सत्ता में उसको लाया जाए जो दूसरे की दोनों आँख फोड़ सकता हो बेशक अपनी भी एक फुड़वानी पड़ जाए . इस Narative को बनाने में कुछ संस्थाओं को कई दशक लगे .जबकि इस मानसिकता का आखरी पड़ाव देश का विभाजन है .अगर विभाजनकारी इस सोच को बदला न गया तो देश को Civil War और उसके बाद ग़ुलाम होने से कोई रोक नहीं सकता .
UP में पिछले लगभग २ साल से प्रियंका गाँधी मज़लूम परिवार के साथ खड़ी दिखाई दे रही थी वो आज प्रदेश में 2 सीट पर सिमट गयी . 40 % महिलाओं को टिकट देकर एक नया तजर्बा भी किया , लेकिन उनकी चुनावी सभाओं में आने वाली भीड़ वोट में तब्दील नहीं हो सकी , यह अत्यंत विचारणीय है . और आज की राजनीती को समझने की भी ज़रुरत है .
दरअसल राष्ट्रवाद किसी भी पार्टी में नज़र नहीं आता , उसका उदाहरण नेताओं के दल बदल , या तो पैसे के लिए या सत्ता के लिए . पूँजीवाद और सत्तावाद हावी है , इसीलिए हर एक पोलिटिकल पार्टी अपनी स्थिरता में मसरूफ़ है देश से कोई सरोकार नहीं ,,,,,नेताओं में देश प्रेम नहीं सत्ता प्रेम है , जहाँ सत्ता की आस दिखती है उधर भाग जाता है नेता , नेता खुद नमक हराम है और देश की जनता को नमक हराम बोलता है और बोलती है अब नेता का एक ही मक़सद है अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता और देश …..
2019 लोक सभा चुनाव के नतीजों के बाद NDA के दोबारा प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने को लेकर EVM की चर्चा ज़ोरों पर थी .इसी दौरान बामसेफ के अधयक्ष वामन मेश्राम ने ‘ईवीएम भंडाफोड़ परिवर्तन यात्रा’ भी शुरू की थी . यह जम्मू कश्मीर से 26 जून 2019 को शुरू हुई और 3 दिसंबर को तेलंगाना के हैदराबाद में खत्म हुई. 180 दिनों तक चलने वाली यह यात्रा 17 राज्यों के 180 लोकसभा क्षेत्रों से होकर गुज़री थी .
ज़ाहिर है इस बीच EVM की खामियों के बारे में लाखों लोगों तक बात पहुँचाने का मौक़ा मिला होगा ….. लेकिन EVM का इस्तेमाल उसके बाद भी लगातार जारी है ..हालाँकि सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद वीवी पैड का इज़ाफ़ा किया गया था लेकिन उसके बाद भी इसमें धान्द्ली के रास्ते निकाल लिए जाने के आरोप भी लगातार लगते रहे हैं . तमाम बड़ी कोशिशों के बावजूद EVM अभी भी एक भर्म का विषय बनी हुई है .ईवीएम में धान्द्ली की आशंकाओं के बीच दुनिया के कई प्रगतिशील देशों में Ballot Paper को दोबारा शुरू कर दिया गया है …. आखिऱ कुछ तो है जिसकी पर्दा दारी है…..