10 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में एक बात जो कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए कही थी कि ,
“मैं कांग्रेस की मुसीबत समझता हूं. बरसों से एक ही फ़ेल प्रोडक्ट को बार-बार लॉन्च करते हैं. हर बार लॉन्चिंग फ़ेल हो जाती है और अब उसका नतीजा ये हुआ है कि मतदाताओं के प्रति उनकी नफ़रत भी सातवें आसमान पर पहुंच गई है.”
दरअसल मोदी ऐसा इसलिए कह रहे ,क्योंकि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में कोई ख़ास Perform नहीं कर सकी. इसके अलावा कई राज्यों में हुए चुनावों में या तो कांग्रेस की सरकार जाती रही या विपक्ष में रहते हुए वो बीजेपी शासित प्रदेशों में मंगाई , बेरोज़गारी और साम्प्रदायिकता के खिलाफ कुछ ख़ास नहीं कर पाए .
जबकि बीजेपी कांग्रेस शासित प्रदेशों में छोटे से मुद्दे को बी बड़ी शिद्दत से चला लेती है . इसपर कांग्रेस को सोचना तो पड़ेगा . रहा मोदी जी टिपण्णी का सवाल तो वो कॉंग्रेस्समुक्त भारत का नारा लेकर चले हैं उनके हर जुमले के पीछे कांग्रेस मुक्ति का राज़ छुपा होगा इसको हमेशा सामने रखना पड़ेगा .
कांग्रेस पार्टी इस बार भी गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती दिखाई दी है.शायद इस लिए भी की पार्टी के पास इनका कोई कोई विकल्प नहीं है . हालाँकि बीजेपी भी घूम तो गुजरात बंधुओं के ही इर्द गिर्द रही है . किन्तु इस हकीकत को कांग्रेस जनता के सामने सही से पेश नहीं कर सकी.
जबकि कांग्रेस के पास कई ऐसे FIREBRAND प्रवक्ता हैं जो TV डिबेट्स में अपने विरोधियों को लोहे के चने चबवा देते हैं ख़ास तौर से जब हम बात करें सुप्रिया सुनाते की तो उनके सामने विपक्षी बैठने से पहले सोचता तो होगा .
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपनी सरकार गंवा चुकी है और मध्य प्रदेश में भी उसे बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा है. वहीं, मिज़ोरम में उसे सिर्फ़ एक सीट मिली है जबकि बीजेपी को २ सीटें मिल गईं .
राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में बीजेपी के चुनाव प्रचार की बात करें तो इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगे थे जबकि राज्य के नेता और दूसरे केंद्रीय नेता पीछे रहे .यानी चुनाव मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया .
वहीं कांग्रेस के चुनाव प्रचार की बात करें तो इसमें राहुल के मुक़ाबले राज्य के नेता आगे दिखाई दिए .उन्होंने राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में थोड़ा कम प्रचार किया लेकिन तेलंगाना में काफ़ी चुनावी रैलियां कीं .
राहुल के चेहरे और उनके दिए नारों को तेलंगाना के अलावा बाक़ी राज्यों में आम तौर से इस्तेमाल नहीं किया गया. अगर छत्तीसगढ़ की बात करें तो वहां भूपेश बघेल अपनी सरकार की ख़ासियतें गिनवाते रहे. साथ ही हिंदूवादी नेता की छवि बनाने में उनकी दिलचस्पी दिखाई दी . लगभग इसी पैटर्न पर राजस्थान में अशोक गहलोत भी चुनाव को लीड कर रहे थे.
मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने चुनाव की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में रखी थी. तेलंगाना में चुनाव का ज़िम्मा रेवंत रेड्डी के कंधों पर था.और यह सब किसी हद तक सही भी था क्योंकि अन्त्यतय: जनता के मुद्दों का सामना प्रदेश के मुख्यमंत्री को ही करना होता है .
कुल मिलकर अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस के अलग-अलग चेहरे थे तो क्या ऐसे में इन राज्यों में हार के लिए राहुल गांधी को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?
कांग्रेस की तरफ से चुनाव को कवर करने वाले एक पत्रकार ने बताय कि कांग्रेस हारी है तो इसका अर्थ है कि उसकी लीडरशिप पर लोगों ने विश्वास नहीं जताया है और लीडरशिप का मतलब गांधी परिवार होता है.भले वो पार्टी अध्यक्ष नहीं हैं .
वो कहते हैं कि चुनाव के दौरान कांग्रेस के राज्य और केंद्र के नेता चुनाव प्रचार कर रहे थे तो ये बघेल, गहलोत और कमलनाथ की हार है. वहीं केंद्रीय स्तर पर ये गांधी परिवार और राहुल गांधी की हार कहा जा सकता है .
हमारा मानना है कि इन विधानसभा चुनावों में न ही राहुल गांधी के चेहरे को आगे रखा गया था और न ही उनको लेकर बहुत ज़्यादा प्रदेश कटियों में आकर्षण था .अक्सर राज्यों में उनके स्थानीय नेता चुनाव लड़ रहे थे.
छत्तीसगढ़ में कई लोगों ने कहा था कि वो अपने उम्मीदवार से नाराज़ हैं लेकिन वो बघेल की लीडरशिप की वजह से कांग्रेस को वोट देंगे. वहीँ दूसरी तरफ लोगों का मानना यह भी था कि मंहगाई , बेरोज़गारी के बावजूद वोट हमारा बीजेपी को जाएगा . छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री चेहरे को तस्वीर साफ़ थी .जबकि बीजेपी के बारे में लगातार असमंजस की स्थिति थी .
राजस्थान में लोग गहलोत की योजनाओं की बात करते थे ,राहुल गांधी की लीडरशिप पर बात नहीं होती थी .इसके अलावा राहुल ने अपनी ज़्यादा रैलियां तेलंगाना में कीं इस तरह से ये राहुल गांधी नहीं बल्कि राज्य के नेताओं की हार कहा जाना ज़्यादा उचित होगा . क्योंकि राहुल गाँधी चुनावों में अग्रिम पंक्ति में नहीं रहे थे .
राजनीतिक दलों की ओर से ऐसा नैरेटिव बनाया जाता है कि जो पार्टी का बड़ा नेता होता है जीत का सेहरा उसके सिर ही बंधता है.जबकि कांग्रेस ने इस बार के विधानसभा चुनावों को राज्य के नेताओं पर ही छोड़ा हुआ था और राहुल गांधी-प्रियंका गांधी सिर्फ़ कैंपेनर की भूमिका में थे, इस वजह से मुझे लगता है कि यह राहुल गांधी के इर्द-गिर्द का चुनाव नहीं था.
‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कितना रहा असर?
राहुल गांधी के नेतृत्त्व में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद कांग्रेस ने कर्नाटक और हिमाचल विधानसभा चुनाव भी जीता था और इस जीत का श्रेय राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को ही दिया गया था.
लेकिन भारत जोड़ो यात्रा मध्य प्रदेश और राजस्थान पर असर नहीं डाल पाई , जबकि यात्रा इन सूबों से भी होकर गुज़री थी अब इसको क्या कहेंगे आप . क्या भारत जोड़ो यात्रा का कोई असर उत्तर भारत या हिंदी बेल्ट में होता नहीं दिख रहा है?
हालांकि देश का नौजवान नागरिक राहुल गाँधी की ईमानदारी और बेबाकी और उनकी भारत जोड़ो यात्रा की तारीफ़ करते हैं लेकिन उनको अभी भी झूठे और नफरत फैलाने वालों की टोली के मुक़ाबले एक सक्षम नेता की तौर पर नहीं देखते हैं.
यह बात सही है की भारत जोड़ो यात्रा से देश में नफरत की आंधी कम हुई थी . और देश की जनता ख़ास तौर से दलित और अल्पसंख्यं समुदाय में विश्वास जाग रहा था . मगर इस तारीखी भारत जोड़ो यात्रा (BJY) को Manage करने में कांग्रेस नाकाम रही .
इसी तरह से तेलंगाना के चुनाव प्रचार में राहुल गाँधी केसीआर और पीएम मोदी पर हमलावर रहते थे और कांग्रेस की सरकार बनने पर कई लाभ देने का वादा करते थे.इस चुनाव प्रचार के दौरान वो इस वादे को ज़रूर दोहराते थे कि कांग्रेस पार्टी की सरकार जातिगत जनगणना कराएगी .
लेकिन इस वादे को स्थानीय नेता उतने ज़ोर-शोर से नहीं उठा पाए . वो अपने जातिगत समीकरण और स्थानीय मुद्दों पर वोट मांग रहे थे. तो यहाँ केंद्रीय Leadership और स्थानीय नेतृत्व के सामंजस्य की कमी नज़र आ रही थी .
इसके साथ ही राहुल गाँधी अपने पुराने नारे ‘नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलने आया हूं’ को भी दोहराते रहे.ऐसा लग रहा था की इस नारे की अहमियत सिर्फ भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही सिमट गयी गयी थी .हमारे सर्वेक्षण में ऐसा महसूस हुआ कि राहुल के मुक़ाबले प्रियंका वडेरा में नई नस्ल देश का उज्जवल भविष्य देख रही हो .हमारा मन्ना है की देश और दुनिया का उज्जवल भविष्य ईमानदारी की राजनीती में ही पोशीदा है अब वो चाहे जो भी हो .