क़ौम को हर दौर में इज़्ज़त मिली तालीम से

तालीम की अहमियत का ज़िक्र हो या फिर मुसलमानों की बदहाल सूरते-हाल का रोना । इन दोनों टॉपिक्स पर बहुत बात हो चुकी है। इसलिये अब हमें अपने पुराने दौर पर फ़ख़्र करने या हाल पर मातम करने के बजाय मुस्तक़बिल के बारे में सोचना चाहिये।
मिल्लत का हर शख़्स क़ीमती है वो मुल्क और क़ौम का सरमाया है। उसकी ज़िन्दगी के असरात मुल्क और क़ौम दोनों पर पड़ते हैं। इसलिये हमें ऐसी स्ट्रेटजी बनानी चाहिये जो क़ौम के हर शख़्स के लिये क़ाबिले-अमल हो और जिसके पॉज़िटिव (सकारात्मक) नतीजे निकल सकते हों।

तालीम के ताल्लुक़ से हम अपने समाज को तबक़ों में बाँट सकते हैं। एक वो है जो बहुत अच्छा और बेहतर दिमाग़ रखता है। उसके पास वसायल (resources) भी हैं। मगर गाइडेंस की कमी है। दूसरा तबक़ा ज़हीन और आला दिमाग़ तो रखता है लेकिन उसके पास सरमाया नहीं है। एक तबक़ा दर्मियनी ज़ेहन का मालिक है, कुछ लोग ऐसे हैं जो माली तंगी की वजह से बच्चों को तालीम के बजाय पैसा कमाने में लगा देते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो तालीम को दीन-दुनिया में तक़सीम करके सिर्फ़ दीन की तालीम को ही तरजीह देते हैं।
कई बार बच्चों का Talent (ज़हानत ) माँ-बाप की माली मजबूरी का शिकार हो जाती है। कहीं आला दिमाग़ परदे में छिपकर अपने जौहर और सलाहियतें दिखाने से महरूम रहता है। जबकि कुछ तालीमी इदारे खास तहज़ीब के लिये ख़तरा हैं और जहाँ तहज़ीब महफ़ूज़ है तो वहाँ मैयारे-तालीम की कमी है।

तालीम के बारे में ये ग़लतफ़हमी भी समाज में पाई जाती है कि तालीम हासिल करने के बाद नौकरी नहीं मिलती। हमारी बहुत-सी तंज़ीमें हुकूमत से रिज़र्वेशन की माँग भी करती रहती हैं, कुछ राज्य सरकारों ने चार-पाँच परसेंट का चारा भी डाला है। लेकिन हमें याद रखना चाहिये कि तालीम सिर्फ़ नौकरी के लिये ही हासिल नहीं की जाती।
दूसरी बात ये है कि आला तालीम हासिल करने वालों के दरवाज़ों पर दर्जनों नौकरियाँ दस्तक देती हैं। अगर देश में नौकरियों में कमी भी हो जाए तो विदेशी companies अच्छे दिमाग़ ख़रीदने को तैयार है। सवाल ये है कि अब हमें करना क्या है?
सबसे पहले हर गाँव और हर शहर में एक लोकल कमेटी बनाना चाहिये जिसमें उस बस्ती या शहर के पढ़े-लिखे और मिल्लत के लिये फ़िक्रमन्द लोग मौजूद हों। इस कमेटी में सिविल सोसाइटी के हर तबक़े की नुमाइन्दगी हो। ये कमेटी जो काम करे वो इस तरह हो सकते हैं :
• अपनी बस्ती और शहर का सर्वे करे। तालीमी सूरते-हाल के मुताबिक़ लिस्ट बनाए।
• जो बच्चे और माँ-बाप दुनियावी तालीम का रुझान रखते हों उनका एडमिशन स्कूलों में कराए। उनकी दीनी तालीम के लिये ईवनिंग स्कूल या मॉर्निंग स्कूल क़ायम करे। या मक्त्तबी निज़ाम ए तालीम से जुड़े ।

जो बच्चे सिर्फ़ दीनी तालीम हासिल करना चाहते हैं उनको दीनी मदरसों में दाख़िल कराए। अलबत्ता उनके लिये दुनियावी तालीम का इन्तिज़ाम भी वहां होना चाहिये।
इसके लिये मोहल्ले की मस्जिद का इस्तेमाल भी हो सकता है या मदरसे वालों से मिलकर एक उस्ताद का इन्तिज़ाम भी किया जा सकता है।
• वो मक़ामात जहाँ सरकारी या मुस्लिम मेनेजमेंट के मैयारी इदारे न हों वहाँ ब्रादराने-वतन के स्कूलों से फ़ायदा उठाया जाए। अपने बच्चों की तहज़ीबी और भाषाई (Cultural and linguistic) तहफ़्फ़ुज़ के लिये ईवनिंग स्कूल क़ायम किये जाएँ। जिसके लिये मस्जिद मुनासिब जगह है।

• पाँचवीं, आठवीं, दसवीं और बारहवीं जमाअत में पढ़ने वाले बच्चों के लिये काउंसिलिंग एंड गाइडेंस प्रोग्राम किये जाएँ। इसके लिये ज़िले के किसी अच्छे स्कूल के प्रिंसिपल वग़ैरा की ख़िदमात ली जा सकती हैं। करियर गाइडेंस की बहुत-सी वेबसाइट्स भी रहनुमाई कर सकती हैं।
• बच्चों को उनकी दिलचस्पी और ज़ेहनी सलाहियत के मुताबिक़ सब्जेक्ट दिलाए जाएँ। आम तौर पर हर शख़्स अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहता है। जबकि समाज में डॉक्टर और इंजीनियर के साथ-साथ, अच्छे ताजिर, खेती के माहिरीन, दूर-अन्देश मंसूबा बनानेवाले, बा-अख़लाक़ टीचर्स, वफ़ादार सिपाही और दारोग़ा, जॉ-निसार फ़ौजी, इन्तिज़ाम सँभालने के लिये ज़हीन एस डी एम और कलेक्टर यहाँ तक कि दीन की रहनुमाई के लिये खुले ज़ेहन के इमाम और आलिम की भी ज़रूरत है।

• बस्ती और शहर की सतह पर टैलेंट सर्च टेस्ट कराए। इसमें पास होनेवाले बच्चों की तालीम का प्रोग्राम बनाए। कम्पटीशन एग्ज़ाम की तैयारी के लिये कोचिंग सेंटर्स से रुजू किया जाए। इस बारे में अल-अमीन सोसाइटी बेंगलोर, शाहीन ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन बीदर, अल-अमीन मिशन कोलकाता, शाहीन एकेडमी दिल्ली, मुस्लिम एजुकेशनल सोसाइटी केरला, रहमानी 30 पटना, लतीफ़ी 40 हैदराबाद, रेज़िडेंशल कोचिंग जामिआ मिलिया इस्लामिया दिल्ली और ए एम यू अलीगढ़ वग़ैरा से राब्ता किया जा सकता है। इनकी मालूमात इन इदारों की वेबसाइट्स पर मौजूद हैं।
अगर शहर या बस्ती की आबादी में मुसलमानों की तादाद ज़्यादा हो और वहाँ कुछ मालदार लोग हों तो उन्हें स्कूल और कॉलेज क़ायम करने की तरफ़ तवज्जोह दिलाए। ये स्कूल/कॉलेज इस तरह क़ायम किये जाएँ कि अपना ख़र्च ख़ुद उठा सकते हों और बार-बार चन्दा करने की ज़रूरत बाक़ी न रहे। मुनासिब फ़ीस वुसूल की जाए अलबत्ता इंटेलिजेंट और ग़रीब स्टूडेंट्स के लिये कुछ सीटें ख़ास की जाएँ। जिनको टेस्ट लेकर स्कॉलरशिप दी जाएँ।

• माली ख़र्चों के लिये चन्दे से जहाँ तक मुमकिन हो बचा जाए। इसके बजाय ग़रीब और इंटेलिजेंट स्टुडेंट्स के तालीमी ख़र्चे अव्वल तो तालीमी इदारा बर्दाश्त करे या कोई मालदार शख़्स ऐसे बच्चे के ख़र्चों की ज़िम्मेदारी ले और उसकी फ़ीस वग़ैरा अदा करे। मेट्रो-पोलिटन शहर को छोड़ दीजिये तो हर गाँव में दस और शहर में ऐसे सो बच्चे होंगे। जिनमें से पचास परसेंट बच्चों के ख़र्चों के लिये स्कूल आमादा हो जाएँगे और बाक़ी के लिये इसी शहर से ऐसे लोग मिल जाएँगे जो मिल्लत के मुस्तक़बिल की सरपरस्ती करेंगे।

आला तालीम (High Education) के लिये सरकारी, ग़ैर-सरकारी तंज़ीमों की स्कॉलरशिप हासिल की जाए। ज़रूरत पड़ने पर बैंक से भी तालीमी लोन लिया जा सकता है। दूसरे ख़र्चों के लिये कमेटी के मेम्बरान आपसी तआवुन करें। क़ौम की ज़ेहनसाज़ी की जाए कि वो बच्चों की तालीम पर अपनी आमदनी का कम से कम 10 परसेंट ख़र्च करे।
• मुस्लिम मैनेजमेंट के इदारों के ज़िम्मेदारों से मिलकर उनके मसायल मालूम किये जाएँ, मसायल के हल और इदारे को आगे बढ़ाने और उसे मज़बूत बनाने में मदद की जाए, उनके एजुकेशनल स्टेंडर्ड को बेहतर बनाने के लिये मशवरे दिये जाएँ। मुस्लिम मैनेजमेंट के इदारों को अपनी तालीमी पॉलिसी इस तरह बनानी चाहिये कि भारत के संविधान के मुताबिक़ भी हो और किसी धर्म और कल्चर के ख़िलाफ़ भी न हो।

• सरकारी और ब्रादराने-वतन के स्कूलों से बेहतर ताल्लुक़ात बनाए जाएँ, उनको इस्लाम और मुसलमानों के तहफ़्फ़ुज़ात से आगाह किया जाए।
• मुस्लिम जमाअतें और मिल्ली तंज़ीमें कम से कम ज़िला स्तर पर ही एक आइडियल और मॉडल तालीमी इदारा क़ायम करने में सिविल सोसाइटी की मदद कर दें तो बड़ा काम होगा। ये न कर सकें तो ज़िला स्तर पर एक करियर गाइडेंस सेंटर ही क़ायम कर दें जहाँ किसी भी तालिबे-इल्म को ज़रूरी और ताज़ा मालूमात मिल जाएँ। ये भी मुमकिन न हो तो कम से कम अपने-अपने हेड-क्वार्टर पर ही एक करियर गाइडेंस का सेण्टर बना लें, ताकि लोग फ़ोन या ऑनलाइन ज़रिओं का इस्तेमाल करके रहनुमाई हासिल कर सकें। यह मुल्क और मिल्लत की बड़ी खिदमत होगी

छोटी-छोटी कम्पनियाँ कस्टमर केयर सर्विस (ग्राहक सेवा केन्द्र) क़ायम करके चौबीस घंटे लोगों के मसायल हल करती हैं। आप बारह घंटे ही उस काम के लिये कुछ लोगों को नौकरी पर रख लें तो क़ौम पर आपका एहसान होगा।
• लोकल तालीमी कमेटी के लिये ऊपर दिये गए काम कुछ मुश्किल नहीं हैं। क़ौम की तक़दीर सिर्फ़ तक़रीर करने या बेहतर मंसूबा बनाने से नहीं बदलेगी। तक़दीर बदलने के लिये मक़ामी सतह पर ही सिविल सोसाइटी को एक्टिव होना पड़ेगा। अपना आराम और नींद हराम करनी पड़ेगी। अपने सरमाये का कुछ हिस्सा ख़र्च करना होगा। कुछ पत्थर खाने होंगे।
लेकिन ज़रा सोचिये अगर आपने ये सब कुछ बर्दाश्त कर लिया तो क़ौम की हालत सुधर जाएगी। उसको इज़्ज़त और उरूज हासिल होगा। मुल्क की तामीर और तरक़्क़ी में बढ़ोतरी होगी। क्या हम देखते नहीं कि एक सर सैयद रह० ने जब ये सब कुछ बर्दाश्त किया तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वुजूद में आ गई, एक क़ासिम नानौतवी रह० ने क़ुर्बानियाँ दीं तो हज़ारों दारुल-उलूम बन गए। अगर हर शहर और बस्ती में एक सर सैयद और एक क़ासिम नानौतवी पैदा हो जाए तो तो यह मुल्क और मिल्लत के लिए बड़ा सरमाया होगा और यह हमारे वतन अज़ीज़ , इंसानियत और क़ौम से सच्ची हमदर्दी का सुबूत बनेगा .

• मगर हम मसायल पर सिर्फ़ बात करते हैं, काम करनेवालों में कमियाँ तलाश करते हैं और चाहते हैं कि सारे काम कोई दूसरा कर जाए, हमें कुछ न करना पड़े।
तो ऐ मेरे दोस्तो! कान खोलकर सुन लो! जब तक तुम ख़ुद कुछ नहीं करोगे तब तक आसमान वाला भी तुम्हारे लिये कुछ करनेवाला नहीं। तो फिर तुम ज़मीनवालों से ये उम्मीद क्यों लगाए बैठे हो कि वो तुम्हारे बच्चों की तालीम का इन्तिज़ाम भी करेंगे, तुम्हारी सेहत का ख़याल भी रखेंगे, तुम्हारे मुँह में निवाला भी देंगे। अगर तुम्हारी यही रविश रही तो आनेवाले दिनों में तुम चबाने और हज़म करने का काम भी दूसरों को सौंप दोगे। फिर तुम अपनी मौत के ख़ुद ज़िम्मेदार होगे।
इल्म के बाइस फ़रिश्तों पर मिली है फ़ौक़ियत।
क़ौम को हर दौर में इज़्ज़त मिली तालीम से।।