[]
Home » Editorial & Articles » लोकतंत्र पर एक अलोकतांत्रिक बहस
लोकतंत्र पर एक अलोकतांत्रिक बहस

लोकतंत्र पर एक अलोकतांत्रिक बहस

Indian democracy

योगेन्द्र यादव

जैसे -जैसे लोकतंत्र का पतन होता है, सार्वजनिक बहस छिछली और बेतुकी होती जाती है। इसका नमूना हाल ही में देखने को मिला। अनएकैडमी नामक ऑनलाइन कोचिंग संस्था के ट्यूटर करण सांगवान ने कानून विषय पर अपने लैक्चर में विद्यार्थियों से कहा-वे सिर्फ पढ़े-लिखे उम्मीदवारों को ही वोट दें। लैक्चर यू-ट्यूब पर उपलब्ध था। इस पर बवाल मच गया। आम आदमी पार्टी और भाजपा के समर्थकों ने तलवारें खींच लीं। डर के मारे संस्थान के मलिक रोमन सैनी ने एक पोस्ट लिखकर ट्यूटर से पल्ला झाड़ उसे संस्थान से चलता कर दिया।

इस बहस में दोनों तरफ से अलोकतांत्रिक तर्क पेश किए गए। करण सांगवान के हक में कहा गया राजनीति में शिक्षित लोगों का आना जरूरी है और शिक्षक को यह बात अपने विद्यार्थियोंको समझानी चाहिए थी। विरोध करने वालों ने तर्क दिया कि औपचारिक शिक्षा का आग्रह करना अलोकतांत्रिक है इसलिए संस्थान के मालिक द्वारा अध्यापक को निकालना बिल्कुल जायज था। दोनों ही तर्क आधारहीन हैं, दोनों के ही निष्कर्ष खतरनाक हैं। पहले अध्यापक के समर्थन में दिए जा रहे तर्कों को देखें।

इसमें कोई शक नहीं कि चाहे राजनेता सरकार में हो या विपक्ष में, उसे जितने बड़े फैसले लेने होते हैं, परन्तु उसे देखते हुए समझदार नेताओं की आवश्यकता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। सवाल यह है कि क्या औपचारिक शिक्षा समझदारी की गारंटी है? गारंटी न सही, क्या समझदार होने के लिए औपचारिक डिग्रियां जरूरी हैं? अगर हम सब अपने इर्द-गिर्द देखें तो साफ हो जाएगा कि डिग्रियां अक्षर ज्ञान दे सकती हैं, किताबी सूचना दे सकती हैं, कुछ खास डिग्रियां कौशल दे सकती हैं लेकिन डिग्री से समझदारी नहीं मिलती है।

राजनीतिक समझदारी का स्वरूप अलग होता है। जिस समझदारी की अपेक्षा क्रिकेट टीम के कप्तान से की जाती है या जिस टैंपरामैंट की उम्मीद बल्लेबाज से या जिस चतुराई की उम्मीद गेंदबाज से की जाती है वह डिग्री से नहीं हासिल होता। ठीक उसी तरह से राजनेता की समझदारी के लिए जो गुण चाहिएं वे हैं सुनने की क्षमता, समाज की थाह लेने की क्षमता, लोगों से संवाद करने का गुण और उनके दुख-दर्द को अभिव्यक्त करने और उसका समाधान करने की क्षमता। यह सब जनता के बीच रहकर लोगों का दुख- सुख सुनकर और अनुभव से हासिल होता है, इसमें कभी-कभार औपचारिक शिक्षा से फायदा हो जाता है लेकिन यह जरूरी नहीं है।

READ ALSO  भीड़तंत्र का क़ानून देश को निगल जायेगा और विकास विनाश में होजायेगा तब्दील

राजनीति के लिए जिस नैतिकता, निष्ठा और जनता के प्रति ईमानदारी की जरूरत है उसका तो पढ़ाई-लिखाई से कोई लेना-देना ही नहीं है। राजनीति में भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और अनैतिकता के अधिकांश मामलों में अपराधी काफी पढ़े-लिखे लोग होते हैं। सिर्फ राजनीति में ही नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में औपचारिक शिक्षा और डिग्री का नैतिकता से कोई संबंध नहीं है।

यूं भी राजनेताओं की शिक्षा के पक्ष में तर्क देना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि शिक्षा अगर नेताओं में गुणों का विकास करती है तो लोग स्वाभाविक रूप से बिना किसी के कहे शिक्षित लोगों को चुनेंगे, इसके लिए प्रचार-प्रसार की क्या जरूरत है? एक राजनेता की सबसे बड़ी योग्यता यह है कि उसके मतदाता उसे पसंद करें व उसे अपना सुख-दुख की घड़ी में साथी समझें।

एक राजनेता की सबसे बड़ी परीक्षा स्कूल या यूनिवॢसटी की परीक्षा नहीं बल्कि चुनावी परीक्षा होती है। उस परीक्षा के अलावा उस पर औपचारिक डिग्री होने की अपेक्षा या बंदिश लादना फिजूल है। कुल मिलाकर लोकतांत्रिक और तार्किक दोनों आधार पर करण सांगवान के वक्तव्य से असहमत हुआ जा सकता है। अब बहस के दूसरे पहलू को देखिए। करण सांगवान ने ऐसा क्या कुछ कहा जिसके आधार पर उन पर कार्रवाई की जा सके या उनका कांट्रैक्ट रद्द किया जा सके? अगर वह गणित या फिजिक्स का लैक्चर दे रहे होते तो कहा जा सकता था कि वह अनर्गल बात कर रहे हैं जिसका विषय से कोई संबंध नहीं है।

लेकिन कानून विषय को पढ़ाते वक्त तो समाज और लोकतंत्र की चर्चा होगी। जब अध्यापक विद्यार्थियों से बात करेगा तो एक मर्यादा के भीतर उसे अपने विचार रखने का अधिकार है। बहस को चलाने के लिए भी अध्यापक किसी पक्ष में खड़ा हो सकता है। जो भी हो करण सांगवान ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो असंसदीय हो, आपराधिक हो, भड़काऊ हो, संविधान विरोधी हो, देशद्रोहपूर्ण हो।

READ ALSO  इस हुकूमत में सबसे ज़यादा नुक़्सान राम-रहीम की दोस्ती को पहुँचा है

ऐसे में सिर्फ एक राजनीतिक रुझान रखने वाले लोगों के दबाव के तहत अध्यापक पर कार्रवाई करना और वह भी उसे बिना सुने कहां तक उचित है? अगर करण सांगवान का तर्कअलोकतांत्रिक है तो उन्हें बर्खास्त करने की दलील भी अलोकतांत्रिक है।इस विषय पर पक्ष और विपक्ष में दिए गए तर्क ही बेतुके नहीं हैं, इस विषय पर बहस अपने आप में बेतुकी है।

सच यह है कि राजनेताओं का पढ़ा-लिखा होना या न होना आज हमारे देश में कोई मुद्दा है ही नहीं। सच यह है कि 50 और 60 के दशक में कुछ अशिक्षित लोग भले ही हमारी विधानसभाओं और संसद में चुनकर आ जाते थे, अब उनकी संख्या नगण्य प्राय: हो गई है। हमारे चुने हुए नेता अच्छे हों या बुरे, कमेरे हों या निकम्मे, ईमानदार हों या बेईमान, लगभग सभी डिग्रीधारी जरूर होते हैं। ऐसे में अचानक नेता पढ़े-लिखे हों या नहीं हों इसकी बहस चलाना अपने आप में नासमझी का लक्षण है।

असली समस्या इससे भी गहरी है। विडंबना यह है कि हम एक साधारण से वीडियो में दिए एक लचर से तर्क पर बहस तो करते हैं, लेकिन देशभर में चल रहे उन वीडियोज पर बहस नहीं करते जिनमें खुल्लम-खुल्ला ङ्क्षहसा की वकालत की जा रही है, देश के नागरिकों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काया जा रहा है, हथियार इकट्ठा करने की अपील की जा रही है और किसी समुदाय के नरसंहार की धमकी दी जा रही है।

एक अध्यापक कानून की कक्षा में कानून के दायरे में रहते हुए अपने विचार रखे उस पर तो बवाल है, लेकिन सरकारी पद पर बैठा प्रधानमंत्री का सलाहकार देश का संविधान खारिज करने की बात करे उस पर सन्नाटा है। गलत तर्क देने वाले पर तुरंत कार्रवाई है लेकिन गाली देने वालों का सम्मान है, गोली चलाने वालों के बारे में सबकी आंखें और जुबान बंद है। इसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता लोकतंत्र की मौत होती है।

 

Read more articles from Times Of Pedia here:

TimesOfPedia/Articles

Please follow and like us:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

one × 1 =

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Scroll To Top
error

Enjoy our portal? Please spread the word :)