
—एल. एस. हरदेनिया
‘‘संविधान के अनुसार स्पीकर की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। परंतु परंपरा और व्यवहार के कारण स्पीकर की स्थिति संवैधानिक प्रावधानों से भी ऊँची और महत्वपूर्ण है‘‘। ये शब्द हैं देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जो उन्होंने संसदीय प्रजातंत्र में स्पीकर की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए कहे थे।
यदि आज संसद और विधानसभाओं में अराजकता की स्थिति दिखाई पड़ रही है तो उसका मुख्य कारण स्पीकर के दबदबे में आई कमी है। एक समय ऐसा था जब स्पीकर के पद पर सदन के अत्यधिक सम्मानीय सदस्य को निर्वाचन होता था।
उसमें इतनी मानसिक दृढ़ता होती थी कि वह अपने को सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों में अपनी स्वीकार्यता स्थापित कर लेता था। इसका कारण यह भी था कि प्रायः स्पीकर का चुनाव सर्वसम्मति से होता था।
दूसरे आम चुनाव के बाद अनंतश्यनम् आयंगर सर्वसम्मति से लोकसभा के स्पीकर चुने गए। उन्हें बधाई देते हुए कम्यूनिस्ट गु्रप के नेता, जो लोकसभा के एक असधारण सदस्य थे, ने कहा कि आपसे अपेक्षा है कि आप सत्ताधारी दल के अधिकारों के साथ-साथ प्रतिपक्ष के अधिकारों की भी रक्षा करेंगे।
आचार्य कृपलानी ने कहा कि आप न सिर्फ इस सदन के परंतु इस सदन के माध्यम से देश के नागरिकों की स्वतंत्रता की भी रक्षा करेंगे। कृपलानी ने यह इच्छा भी प्रकट की कि आप अपनी पार्टी से सभी प्रकार के संबंधों को त्याग देंगे।
इस बात की चर्चा करते हुए आयंगर ने कहा कि यद्यपि मैं अपनी पार्टी (कांग्रेस) से इस्तीफा नहीं दूंगा परंतु मेरी कार्यप्रणाली ऐसी रहेगी जिससे मैं सारे सदन का विष्वास जीत सकूं। मेरी पूरी कोशिश होगी कि मैं पूर्णतः निष्पक्ष रहूं और सदन की गरिमा में चार चांद लगाऊं।
आयंगर ने यह भी कहा कि कभी-कभी यह महसूस होगा कि मेरा झुकाव प्रतिपक्ष के प्रति ज्यादा है। मेरी मान्यता है कि सत्ताधारी दल से ज्यादा प्रतिपक्ष को मेरे संरक्षण की आवश्यकता है।
आयंगर व उनके पूर्व और उनके बाद के स्पीकरों ने भी इसी तरह के विचार प्रकट किए थे। परंतु दुःख की बात है कि इस तरह के शब्दों में अपने विचार प्रकट करने का अवसर मध्यप्रदेश विधानसभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति को नहीं मिला।
इसका मुख्य कारण यह था कि स्पीकर का चुनाव तनावपूर्ण वातावरण में हुआ। तनावपूर्ण वातावरण निर्मित होने की मुख्य वजह थी प्रतिपक्ष द्वारा स्पीकर के पद के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा करना।
यह दुःख की बात है कि प्रतिपक्ष ने सत्ताधारी दल के बहुमत के दावे का परीक्षण स्पीकर के चुनाव के माध्यम से करना चाहा। मेरी राय में यदि स्पीकर का चुनाव सर्वसम्मति से होने दिया जाता तो उसके बाद भी प्रतिपक्ष के पास इसी सत्र में सत्ताधारी दल को चुनौती देने के अनेक अवसर होते।
विशेषकर अनुपूरक बजट की स्वीकृति के दौरान। वित्तीय मामलों से संबंधित विनियोग विधेयक सत्ताधारी दल के बहुमत का परीक्षण करने का सबसे उपयुक्त अवसर होता है। यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र की सरकार शिक्षा विभाग से संबंधित वित्तीय कटौती प्रस्ताव अस्वीकृत होने के कारण अपदस्थ हो गई थी।
प्रतिपक्ष ने स्पीकर के पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित कर मध्यप्रदेष विधानसभा में दशकों से स्थापित परंपरा के विपरीत काम किया। इससे नवगठित विधानसभा की शुरूआत अत्यधिक कटु वातावरण में हुई।
मध्यप्रदेश विधानसभा की परंपरा के अनुसार सत्ताधारी दल का सदस्य विधानसभा का स्पीकर बनता है और प्रतिपक्ष का सदस्य डिप्टी स्पीकर। यह अत्यधिक आदर्श परंपरा थी। लोकसभा में भी इसी तरह की परंपरा कायम है।
डॉ मनमोहन सिंह ने इस संबंध में एक अद्भुत प्रयोग किया था। उन्होंने अपनी पार्टी के सदस्य को स्पीकर बनवाने के बजाए सीपीएम के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को स्पीकार पद दिया।
इतिहास गवाह है कि चटर्जी ने अत्यधिक कुशलता एवं निष्पक्षता से लोकसभा की कार्यवाही का संचालन किया, यद्यपि सीपीएम ने उनकी एक निष्पक्ष स्पीकर की प्रतिष्ठा को कायम रहने में बाधा डाली।आजके स्पीकर से यह अपेक्षा रखना कि वो प्रतिपक्ष के अधिकारों को ध्यान में रखकर लोकसभा का सञ्चालन करेगा संभव नहीं है .
और देश की सम्पूर्ण जनता के हितों को लोकसभा कार्रवाई के दौरान अपने दिमाग़ हमेशा रखेगा इसका ख्याल भी उनके दिमाग में नहीं आसक्त .. क्योंकि वो खुद ही कई तरह के दबाव में काम कर रहे होंगे .
और इस बार तो चुनाव के बाद ओम बिरला स्पीकर बने हैं . तो यहाँ अहमं और दबाव दोनों ही नकारात्मक प्रभाव दाल सकते हैं .एक बार नेहरू जी ने भी गैर-कांग्रेसी को स्पीकर बनाया, ऐसे व्यक्ति थे सरदार हुकुम सिंह।
यह भी दुर्भाग्य की बात है कि नई विधानसभा के प्रथम सत्र में प्रतिपक्ष ने स्पीकर पर गंभीर आरोप लगाया। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ताधारी दल ने पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर विशेषाधिकार हनन का आरोप लगाया।
जैसी भी परिस्थिति निर्मित हुई उसे भुलाकर सत्ताधारी दल और विपक्ष को नए सिरे से मधुर संबंध स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा होने पर ही विधानसभा आम जनता के हितों के संरक्षक की अपनी भूमिका का ठीक से निर्वहन कर पाएगी।
(यह लेख मैंने मध्यप्रदेश विधानसभा के स्पीकर पद पर हुये चुनाव के बाद लिखा था।)
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