– डॉ.जया शुक्ला
दूसरी अहम बात यह है कि नफ़ा कमानेवाले हर उपक्रम, यहाँ तक कि रेल, एयरपोर्ट, समुद्री पोर्ट तक, मिट्टी के मोल अपने परम मित्र को सौँप दिये गये हैँ, ऊपर से अनावश्यक फ़िज़ूलख़र्ची बढ़ती ही जा रही है। क्या तब देश तेज़ी से दीवालिया होने की ओर नहीँ बढ़ेगा?
“मगर कि ज़िन्दा कुनी ख़ल्क रा व बाज़ कुशी”
यह पंक्ति पढ़नेवाले प्रबुद्ध गण अवश्य सोच रहे होँगे कि इस विदेशी भाषा की यह पंक्ति हिन्दी के अख़बार मेँ क्योँ लिखी है। बचपन मेँ एक बहुत पुरानी सत्य घटना पढ़ी थी। नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया था और काबिज़ भी हो गया था।
किन्तु एक तो यहाँ लोग देशभक्त थे और शीघ्र ही उसको यहाँ से उखाड़ फेँकते, दूसरी बात कि यहाँ की सभ्यता और संस्कार बहुत विकसित थे, उनको दबा कर अपनी संस्कृति लादना संभव नहीँ था। दुर्दान्त नादिरशाह ने इसका उपाय निकाला क़त्लेआम – जो बाहर नज़र आये, उनकी हत्या करने का हुक़्म उसकी फ़ौजोँ को मिल गया।
ज़िन्दा बचे लोग दिल्ली से भागने लगे, दिल्ली लाशोँ से पट चुकी थी। नादिरशाह के जो वज़ीर उनके सबसे नज़दीक़ माने जाते थे, उनसे यह स्थिति देखी नहीँ जा रही थी, किन्तु नादिरशाह से कुछ भी कहना स्वयं अपनी मौत को दावत देना था। नादिरशाह ने शहर का हाल पूछा। तब उस वज़ीर ने जवाब एक शेर से दियाः
‘कसे न माँद कि दीगर ब तेग़े नाज़ कुशी।
मगर कि ज़िन्दा कुनी ख़ल्क रा व बाज़ कुशी।’
इसका अर्थ यह है कि तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को ज़िन्दा न छोड़ा। अब तो तेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि तू मुर्दों को ज़िंदा करे और फिर उन्हें मारना शुरू करे। पर इसका वास्तविक अर्थ समझ कर नादिरशाह भी हिल गया। उसने क़त्लेआम रुकवा दिया।
आज क्या हमारे देश के हालात 2014 के बाद धीरे धीरे वैसे ही नहीँ होते जा रहे हैँ? ग़रीबी मेँ हम काफ़ी पहले ही यूगान्डा से भी पीछे चले गये। जो ग़रीबी की सीमा से नीचे वाले लोगोँ की संख्या डॉ.मनमोहन सिंह के समय वैश्विक मन्दी के बावजूद घटकर 20 करोड़ रह गई थी, वह 80 करोड़ हो गई, वह भी तब, जब इस ग़रीबी बतानेवाली सीमारेखा को नीचे खिसका दिया गया था ताकि यह संख्या कम दीखे।
आज देश भुखमरी मेँ विश्व के निम्नतम स्तर पर है। देश छोड़कर जो ग़ैरकानूनी ढंगसे अमरीका आदि मेँ घुसने की चेष्टा करते हैँ, जिसमेँ उनकी जान कोभी ख़तराहै, ऐसे लोगोँ की संख्या बहुत बढ़गई है। केवल अमरीकी सीमा पर गिफ़्तार लोग ही पिछले 3 वर्ष मेँ चार-पाँच गुणा बढ़ गये हैँ।
दूसरी अहम बात यह है कि नफ़ा कमानेवाले हर उपक्रम, यहाँ तक कि रेल, एयरपोर्ट, समुद्री पोर्ट तक, मिट्टी के मोल अपने परम मित्र को सौँप दिये गये हैँ, ऊपर से अनावश्यक फ़िज़ूलख़र्ची बढ़ती ही जा रही है। क्या तब देश तेज़ी से दीवालिया होने की ओर नहीँ बढ़ेगा?
यही कारण है कि देश छोड़कर जानेवालोँ मेँ बड़े व्यापारियोँ की संख्या ज़्यादा है। साथ ही, औद्योगिक और तकनीकी उच्च शिक्षा प्राप्त लोग भी, जो देश को आगे बढ़ा सकते थे, अधिक जारहे हैँ। यानी ऐसी परिस्थिति मेँ अब लोग न तो यहाँ अपनी सम्पत्ति का, न ही अपनी योग्यता का निवेश करना चाहते हैँ।
इस दुखद परिस्थिति का परिणाम देखने को मिलता है, जब छोटे छोटे बच्चे अयोध्या के घाट पर मात्र नकली दिखावे के लिये जलाये गये लाखोँ दियोँ से बचाखुचा तेल बटोर कर लेजाते दीखते हैँ, ताकि कम से कम एक दिन तो वह भी तेल मेँ छुँका खाना खा सकेँ। इससे अधिक हृदयविदारक दृश्य क्या होगा !!
सरकार द्वारा प्रायोजित भीषण क़त्लेआम मणिपुर मेँ देखकर भी जो अंधभक्त नहीँ दहले, क्या इस दृश्य का उनपर असर होगा? नादिरशाह नेभी अपने वज़ीर के मुँह से उपर्युक्त शेर सुनकर क.त्लेआम रोक दिया, पर क्या आज के नादिरशाह यह धीमा क़त्लेआम रोकेँगे?
लेखिका कांग्रेस विचार विमर्श Cell की Vice Chairperson हैं
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