अपनी दुनिया आप पैदा कर अगर …..

कलीमुल हफ़ीज़
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को ज़िन्दगी के हर मैदान में एक स्पष्ट रणनीति तय करनी चाहिये
लॉक-डाउन धीरे-धीरे खोला जा रहा है। उम्मीद है कि एक महीने में ज़िन्दगी की रौनक़ वापस आने लगेगी। हालाँकि ज़िन्दगी को ठीक से पटरी पर आने में अभी कई माह लग सकते हैं। इस लॉक-डाउन ने हमें बहुत कुछ सिखा दिया है। इसने ख़ुदा की क़ुदरत का एहसास कराया है। इसने इन्सानों में ख़ुद-एतिमादी (Self Confidence) का जौहर पैदा किया है।
इसने वातावरण को साफ़ और शुद्ध किया है। इस बीमारी ने इन्सानों में हर तरह के भेदभाव को ख़त्म करके ये एहसास कराया है कि देश की भौगोलिक सीमाएँ, भाषा, रंग-नस्ल और धर्म के अलग होने के बावजूद हमारे बीच इन्सानियत का रिश्ता है। लेकिन अब सवाल ये है कि इस बड़ी घटना के बाद जिसे मैं छोटी क़ियामत कहूँ तो अतिश्योक्ति न होगी। हमने अपनी सामाजिक ज़िन्दगी के लिये क्या रणनीति (Strategy) बनाई है? हमने अपनी सोच और फ़िक्र में क्या बदलाव किया है? शिक्षा, स्वास्थ्य, कारोबार और राजनीति के लिये किस तरह की प्लानिंग की है? या अभी भी हम उसी रास्ते पर चलेंगे जिसपर चलकर हम इस तबाही तक आ पहुँचे हैं।
आज़ादी के बाद से सियासी पार्टियों और हुकूमत के रवैये से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि मुसलमानों की कामयाबी और तरक़्क़ी के लिये कोई कुछ करने वाला नहीं है। जो कुछ करना है ख़ुद करना है।
इस बात में कोई सन्देह नहीं कि मुसलमान वैलफ़ेयर के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस लॉक-डाउन में भी ये देखा गया कि हर शहर में मुसलमानों ने अपने ग़रीब भाइयों की बिना किसी भेदभाव के मदद की है। ये अच्छी बात है। मगर ये काम प्लानिंग के साथ न होने की वजह से ज़्यादा तर जगहों पर बदनज़्मी और अव्यवस्था का शिकार रहता है। कहीं ग़ैर-मुस्तहिक़ की मदद हो जाती है। कहीं एक मुस्तहिक़ को चार जगह से मदद मिल जाती है और कहीं कोई हक़दार बग़ैर मदद के रह जाता है।
इसलिये तमाम काम मक़ामी सतह पर ही सही कोई अंजुमन या सोसाइटी बनाकर किये जाएँ तो ज़्यादा फ़ायदे हासिल होंगे। सबसे पहले मौजूद रेसोर्सेज़ के इस्तेमाल पर तवज्जोह की जानी चाहिये। क्योंकि मिल्लत बाँझ नहीं है। इसके पास इदारों, अंजुमनों, मदरसों, मस्जिदों और टैलेंटेड लोगों की शक्ल में बड़ा सरमाया मौजूद है।
ज़ररूरत है इस सरमाये के बेहतर इस्तेमाल की, आपस में ताल-मेल की। अपने कामों के इश्तिहार की भी ज़रूरत महसूस होती है। ताकि मिल्लत के अन्दर नेकी के कामों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने का जज़्बा परवान चढ़े और इसका सर फ़ख़्र से ऊँचा हो। ब्रादराने-वतन के दिल से ग़लतफ़हमियाँ ख़त्म हों। ज़ाहिर है इश्तिहार के लिये मीडिया के रिसोर्स दरकार होंगे। मेरी राय में हमें अपने रवैये में मुस्बत तब्दीली पैदा करनी चाहिये और हिन्दुस्तानी मुसलमानों को ज़िन्दगी के हर शोबे और विभाग के बारे में स्पष्ट स्ट्रैट्जी तय करनी चाहिये।
एजुकेशनल डेवलपमेंट :
शिक्षा के मैदान में सामाजिक रंग अपनाया जाए, शिक्षा से जुड़े लोगों पर आधारित एक सलाहकार कमेटी लोकल जगहों का सर्वे करके शिक्षा के डेवलपमेंट के लिये काम का नक़्शा बनाए। शिक्षा पर ख़र्च करने का मिज़ाज बनाया जाए। अभी मुसलमानों की बड़ी तादाद तालीम को फ़्री हासिल करना चाहती है। मालदार लोग भी अपने बच्चों की फ़ीस अदा करने में लापरवाह साबित हुए हैं। इस रवैये में बदलाव आना चाहिये।
अपनी आमदनी का अच्छा-ख़ासा हिस्सा शिक्षा पर ख़र्च किया जाए। मालदार लोग अपने आस-पास बच्चों को स्कॉलरशिप का इन्तिज़ाम करें। इलाक़ों और ब्रादरियों की सतह पर भी स्कॉलरशिप का इन्तिज़ाम किया जाए। सरकारी स्कॉलरशिप से फ़ायदा उठाया जाए। पहले से क़ायम इदारों का स्टैण्डर्ड बढ़ाया जाए। कुछ और इदारे और संस्थाएँ खोली जाएँ चाहे किसी भी बोर्ड से जुड़ी हों। इसी तरह टेक्निकल इदारों के क़ायम करने पर तवज्जोह देनी चाहिये।
स्कूल एजुकेशन पर तवज्जोह दी जाए ताकि ड्राप-आउट का ग्राफ़ नीचे आ सके। ज़हीन और इंटेलिजेंट बच्चों के लिये शाहीन अकैडमी या अल-अमीन मिशन के तरीक़े पर कोचिंग सेण्टर चलाए जाएँ।
स्वास्थ्य और सफ़ाई :
लॉक-डाउन के दौरान देश के हर हिस्से में इन्सानियत मुख़ालिफ़ घटनाएँ भी सामने आई हैं। इसमें जहाँ मुसलमान दुकानदारों, मुसलमान फेरीवालों से वतनी हिन्दू भाइयों ने सामान ख़रीदने से मना कर दिया और उन्हें अपने मोहल्लों में दाख़िल होने से रोक दिया। वहीँ डॉक्टरों ने, जिनका पेशा ही इन्सानियत की ख़िदमत करना है मुसलमान मरीज़ों के इलाज से हाथ खड़े कर दिये। ये घटनाएँ मामूली नहीं हैं।
इन घटनाओं से भविष्य के हिन्दुस्तान का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। ये मौक़ा भी है और ज़रूरत भी कि हम अपने हॉस्पिटल क़ायम करें, अपने बच्चों को मेडिकल की तालीम दिलाएँ, मुसलमान डॉक्टरों की बड़ी तादाद है। अगर मुस्लिम मेडिकल एसोसिएशन बनाकर प्लानिंग की जाए तो हॉस्पिटल और चैरिटेबल क्लिनिक भी क़ायम हो सकते हैं और नई नस्ल को डॉक्टर भी बनाया जा सकता है। स्वास्थ्य की संस्थाओं को क़ायम करने के साथ-साथ सफाई पर भी तवज्जोह की ज़ररूरत है।
ताकि बीमारियाँ कम से कम पैदा हों, हिन्दुस्तानी मुसलमानों पर सफ़ाई को लेकर मुख़्तलिफ़ इल्ज़ामात लगते रहे हैं। जिनमें किसी हद तक सच्चाई भी है। इसलिये बदन, कपड़े, घर, आँगन और मोहल्ले की सफ़ाई से लेकर बस्तियों और शहरों की सफ़ाई पर इस तरह तवज्जोह दी जाए कि तस्वीर बदल सके। नफ़रत के इस माहौल में ये बात भी ज़ेहन में रहनी चाहिये कि हम ख़ैरे-उम्मत हैं। हमें नफ़रत का जवाब भी मुहब्बत से देना है। हमें अपने दिल से लेकर इदारों और संस्थाओं तक के दरवाज़े सबके लिये खुले रखने हैं।
इंडस्ट्रीज़ और बिज़नेस :
लॉक-डाउन के बीच जिस तरह से इंडस्ट्रीज़ और बिज़नेस मुतास्सिर हुए हैं, उनको देखकर अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि लॉक-डाउन के बाद की सूरते-हाल कितनी तबाहकुन होगी। ग़रीब, मज़दूर की हालत ये होगी कि वो दो वक़्त की रोटी के लिये सब कुछ करने को तैयार होगा। क़ीमत घट जाएगी। ज़ाहिर है जब मज़दूर की क़ीमत घटेगी तो उसका सीधा फ़ायदा अमीर तबक़े को होगा।
ज़मीन जायदाद की क़ीमतें भी घटेंगी जिसके पास सरमाया होगा वो करोड़ों की जायदाद कौड़ियों में ख़रीद लेगा। बीच की आमदनी वाला गरोह हर दिन बेचैनी की कैफ़ियत से दोचार होगा। उसके सामने आगे कुँआ और पीछे खाई वाली नौबत आ जाएगी। इसका मतलब है कि अमीर और ग़रीब के बीच का फ़ासला और बढ़ जाएगा।
चूँकि हमारी अक्सरियत ग़रीब है इसलिये हम ही ज़्यादा मुतास्सिर (Effected) होंगे। इस सूरते-हाल से निमटने का रास्ता ये है कि हम मक़ामी सतह पर ताजिर और समाजी कारकुन मिलकर सेल्फ़-हेल्प ग्रुप बनाएँ। जो आपस में एक-दूसरे की मदद करें। छोटे-मोटे काम मिलजुलकर अंजाम पाएँ। इस बात की कोशिश की जाए कि किसी ग़रीब को पेट की ख़ातिर अपना मकान न बेचना पड़े।
इस ग्रुप के ज़रिए रोज़गार दिया जाए और बेरोज़गारों की ट्रेनिंग और उन्हें माली मदद भी की जाए। इस सिलसिले में हमारे अन्दर जो कोताहियाँ पाई जाती हैं उन्हें भी दूर करना चाहिये। वक़्त पर काम न करना, वादा-ख़िलाफ़ी करना, अमानत में ख़ियानत करना, ये वो बड़ी-बड़ी कमज़ोरियाँ हैं जिनके रहते हुए हम माली तौर पर मज़बूत नहीं हो सकते। हमारे कारख़ानादारों और काम करानेवालों की भी ज़िम्मेदारी है कि वो मिल्लत के टैलेंट को इस्तेमाल में लाएँ और काम करनेवालों के हुक़ूक़ का ख़याल रखें।
पॉलिटिकल एम्पावरमेंट :
सियासत का सब्जेक्ट ऐसा है जिसके बारे में हमारे बीच सबसे ज़्यादा मतभेद पाए जाते हैं। इस सिलसिले में सबसे पहली बात तो ये है कि हम वोट बनवाने और डालने पर तवज्जोह दें, दूसरी बात ये है कि हम लोकल बॉडीज़ में ज़्यादा से ज़्यादा चुने जाएँ, और जो लोग चुने जाएँ वो ज़्यादा से ज़्यादा काम करें। जिन गाँव और क़स्बों में स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल नहीं हैं, वहाँ क़ायम किये जाएँ .
रोज़गार के अवसर पैदा किये जाएँ। दोस्ताना और भाईचारे का माहौल बनाया जाए। विधान-सभा और लोक सभा चुनाव के लिये हर हलक़े से ज़िम्मेदार लोग इस इलाक़े की ज़रूरत को सामने रख कर इशूज़ तय करें और इन इशूज़ की बुनियाद पर सियासी पार्टियों और उम्मीदवारों से मुआहिदे किये जाएँ।
एक आख़िरी गुज़ारिश ये है कि एक-दूसरे की टाँग खींचने से बचा जाए। जो लोग मुल्क और मिल्लत की ख़िदमत का जो भी काम कर रहे हैं हम उनकी मदद करें। जो भी काम करेगा उसका नाम रौशन होगा। हमारी कमज़ोरी ये है कि किसी का अख़बार में फ़ोटो छपने से ही हमारे दिल में हसद के शोले भड़कने लगते हैं। अगर हम किसी का साथ देने का हौसला नहीं रखते तो कम से कम उसकी हिम्मत और हौसले को तकलीफ़ न पहुँचाएँ।
अगर हम उसका क़द छोटा करना चाहते हैं तो इसका सही तरीक़ा ये है कि अपने क़द को बड़ा कर लें। अब हिन्दुस्तानी मुसलमान अपनों की तरफ़ से कुछ और ज़ख़्म बर्दाश्त नहीं कर सकते। ऐसा न हो कि उम्मीद के जो कुछ चिराग़ टिमटिमा रहे हैं वो हमारी फूँक से बुझ जाएँ और सारी क़ौम अँधेरे में टामक-टुइयाँ मारती फिरे।
ये कुछ बातें हैं जिनको इशारों में यहाँ आपके सामने रखा है, ज़ाहिर है इनमें से हर एक सब्जेक्ट ख़ुद एक मोटी किताब का टाइटल बनाए जाने का तक़ाज़ा करता है। मैं जिस लायक़ हूँ हाज़िर हूँ। आप मुझसे मेरे e-mail hilalmalik@yahoo.com पर कॉन्टैक्ट कर सकते हैं।
अपनी दुनिया आप पैदा कर अगर ज़िन्दों में है,
सिर्रे-आदम है ज़मीर, कुन-फकाँ है ज़िन्दगी।