Ali Aadil Khan Editor’s Desk
……..और मुसलमानों के लिए बैतूल मक़्दस या येरुशलम की बक़ा या तहफ़्फ़ुज़ उनकी मज़हबी ज़िम्मेदारी का हिस्सा है
वैलुल्लिल अरब , मैं जब भी इस हदीथ को सुनता हूँ तो मुझे साथ ही गैरिल मग़ज़ूबी अलैहिम वलाज़्ज़ुआलीन आयत भी सामने आजाती है।।।।
हदीस में अरबों की तबाही का ज़िक्र है , याद रहे अरब क़ुरआन के मुताबिक़ ख़ैरे उमम के अव्वल दर्जे में आते हैं क़ुरआन इन्ही की ज़बान में नाज़िल किया गया है . आख़री रसूल और अम्बिया के सरदार मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम इन्ही की ज़बान बोलने वाले इन्ही की सरज़मीं जज़ीरतुल अरब में पैदा हुए . इसके बावजूद इनके लिए रसूल सल्लाहु अलैहि वसल्लम तबाही और बर्बादी की वईद बयान कर रहे हैं।।ये सब क्या है और क्यों ?? यानी अल्लाह यहूद को मग़ज़ूब और मेहलूक (यानी जो हलाक और बर्बाद होने वाले हैं जिनपर अल्लाह का ग़ुस्सा है ) बता रहे हैं और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अरबों के लिए बर्बादी और हलाकत बता रहे हैं।
तो ये सब दरअसल अहकामे शरीयह की ख़िलाफ़ वर्ज़ी करने और अल्लाह की नाफरमानी करने वालों के लिए वईदें हैं। और ख़ुसूसन अहले किताब के लिए ये तम्बीहात और नसीहतें और फटकार है ।
आजके हालात के पसे मंज़र में यहूद का ज़ुल्म और जब्र और अरबों की इसपर खामोशी और तमाशबीनी ये दोनों ही अल्लाह की नाराज़गी के असबाब हैं।। एक और हदीथ का कमफ़हूम है,” तुम हरगिज़ कामयाब और फ़लाह को नहीं पहुँच सकते जबतक ज़ालिम को ज़ुल्म से न रोक दो”
दुनिया जानती है की येरुशलम मुसलमान , ईसाई और यहूदी तीनो की लिए अहमियत और हुरमत वाला मक़ाम है तीनों क़ौमों यानी यहूद , नसारा और मुसलमानों के लिए बैतूल मक़्दस या येरुशलम की बक़ा या तहफ़्फ़ुज़ उनकी मज़हबी ज़िम्मेदारी का हिस्सा है तो क्या ये क़ौमें अपनी बुनयादी मज़हबी ज़िम्मेदारियों से फ़ारिग़ हो चुके हैं ? अगर हाँ तो दूसरा सवाल क्या मज़हबी मक़ाम की आज़ादी की लिए जद्दो जहद ज़रूरी है है या इंसानो के साथ हमदर्दी और भलाई को पहले देखना चाहिए।
हो सकता है यहूदी और नसरानी मुल्कों के रहनुमा अपनी ज़िम्मेदारियों से फ़ारिग़ हो चुके हों लेकिन क्या अरब मुल्कों के रहनुमा अपनी ज़िम्मेदारी से फ़ारिग़ हैं। हमारा जवाब है नहीं।
क्योंकि ईमान के बाद जब इंसान बाशऊर होजाये और उसको इस्लाम के बुनियादी फ़राइज़ का इल्म हो जाए और उसपर वो अमल करने भी लगे तो अब उसको चाहिए की वो अपने अहलो अयाल , कुनबे और आस पास के लोगों को भी अल्लाह का तार्रुफ़ कराये , अमर बिल मारूफ और नहीं अनिल मुनकर (यानी नेकियों और भलाइयों का हुक्म करे और बुराइयों से रोके) और इस अमल को करने की हुज्जत तमाम करे।
और यह ज़िम्मेदारी मुस्लिम स्टेट्स की हैं जिस पर अमल नहीं हुआ। हाल यह है की खुले आम सरे आम अरब मुल्कों में रब की नाफ़रमानियां हो रही हैं और स्टेट्स खामोश हैं। तो फिर इसकी सजा तो भुगतनी होगी।
,,, हालांकि जो मुस्लमान नमाज़ी , हाजी ,रोज़दार है , ज़कात भी देता है मगर भलाइयों का हुक्म नहीं करता , लोगों को बुराइयों से नहीं रोकता।।। बल्कि सूद का लेन देन करता है , एक दुसरे के ख़िलाफ़ साज़िशें रचता है , दिल में बुग़ज़ और ज़बान पर मोहब्बत रखता है ,यानी मुनफक़त करता है , ग़ीबत करता है , कीना रखता है , झूठ बोलता है और मज़ीद यह कहता है की इस दौर में ईमानदारी से काम नहीं चलता झूठ और फरेब करना पड़ेगा। तो ऐसे मुसलमान पर क्या अल्लाह की मदद आएगी ? कैसे उसकी मदद की जायेगी।
मज़ीद यह कि ख़ामोश तमाशाई बनकर लोगों के बीच फ़साद पैदा करता है।अब ऐसे मुसलमान को आप क्या कहेंगे । ??और इन सबके बाद जब हालात आते हैं तो दुआओं का एहतमाम किया जाता है। उमराह और तवाफ़ करता है , रोज़े रखता है मगर
“ख़िरद ने कह भी दिया ला इलाह तो क्या हासिल -दिलो निगाह , मुसलमां नहीं तो कुछ भी नहीं “
इस मौके पर इजराइल के पहले प्रधानमंत्री बिन गोरियान की उसकी बेटी से हुई बात चीत को रखना ज़रूरी समझता हूँ , जो मुसलामानों की लिए नसीहत है और शर्म से डूब मरने की भी बात है।।।।
बिन गोरियां दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था , बेटी ने याद दिलाया आज दीवारे गिरया जाकर दुआ करने का दिन है जो साल में एक बार आता है वहां पहले जाइएगा।।।।। इजराइल की पहले प्रधानमंत्री ने अपनी बेटी को जो तारीखी जवाब दिया वो सुनने की ज़रुरत है।।।। बिन गोरियान ने कहा ,,,,,,,,
में अपने दफ्तर का ज़रूरी काम पहले करूँगा वो मेरी ज़िम्मेदारी है वक़्त बचा तो दीवारे गिरया जाकर दुआ भी करूँगा। बेटी ने कहा साल में एक बार दुआ से ज़्यादा भी कोई ज़रूरी काम है ? बाप ने कहा अगर दुआ से ही काम बन रहे होते तो आज इजराइल तबाह हो चूका होता।
हर साल लाखों मुस्लमान बैतुल्लाह पहुंचकर इजराइल की बर्बादी की दुआ करते हैं।। हर जुमे को इमामे काबा इजराइल की बर्बादी की दुआ करते हैं। दुनिया भर में मुस्लमान रोज़ इजराइल की बर्बादी की दुआ करते हैं। दुआ से अगर काम होता तो इजराइल कब का तबाह हो गया होता। उसने कहा दरअसल मुस्लमान सिर्फ दुआ करते हैं और अमल से खाली हैं। उनकी ज़िंदगियाँ अमल से खाली हैं।
यह बात 100 फीसद सच है , मुस्लमान को जब क़याम और मैदान में होना चाहिए तब वो सजदे और दुआ में चला जाता है। और इसके अलावा दुआ की क़ुबूलियत की शराइत से खाली है दुनिया का मुसलमान। अफ़सोस की बात यह है की दुनिया की ढाई अरब यानी 250 करोड़ मुसलमानो में कोई एक भी ऐसा नहीं जो रब से अपनी बात मनवा ले।
ऐसा नहीं है की कोई एक भी मुसलमान मुस्तजाबुददुआ नहीं है , बल्कि बात यह है की 57 मुस्लमान मुल्कों की रहनुमाओं में कोई एक ऐसा नहीं है जो हक़ की लिए जंग करने की पोजीशन में हो , हाँ अभी मुल्क में हुकूमत की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ बग़ावत हो फ़ौरन अपने ही निहत्ते शहरियों पर बम और गोलियाँ चल जाएंगी ,और हज़ारों शहरी मौत के घाट उतार दिए जाएंगे। मगर जब हक़ और बातिल की जंग हो तो वहां राहे फ़रार इख़्तियार करना मुस्लिम मुल्कों के रहनुमाओं का वतीरा और हिकमत कहलाने लगेगा ।
रह गयी रस्मे अज़ाँ , रूहे बिलाली न रही !
फ़लसफ़ा रह गया , तलक़ीने ग़ज़ाली न रही !!