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दुनिया में भारत की मान-मर्यादा भंग करने का दोष किस पर

दुनिया में भारत की मान-मर्यादा भंग करने का दोष किस पर

विदेश में बोली इस सस्ती चुनावी भाषा पर प्रधानमंत्री ने न तो माफी मांगी, न ही कोई जवाब दिया। शायद भाजपा के नेताओं की शिकायत दूसरी कसौटी को लेकर है कि राहुल गांधी

योगेन्द्र यादव

‘छाज बोले तो बोले, छननी भी बोली जिसमें सत्तर छेद’। राहुल गांधी द्वारा अपने इंगलैंड के दौरे में दिए गए बयानों पर मचाए जा रहे बवाल को देखकर बरबस यह हिंदी की कहावत याद आती है। बेशक देश के अंदरूनी मामलों के बारे में विदेश में की जाने वाली टिप्पणियों की एक मर्यादा होनी चाहिए।

 विपक्ष के नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मर्यादा को बखूबी निभाया था, लेकिन किसी पार्टी का कोई नेता आज उस स्तर पर नहीं पहुंचता है। यूं भी अब वह जमाना नहीं रहा जब घर की बात घर में ढकी रह सकती थी।

इंटरनैट और वैश्विक मीडिया के जमाने में अंदरूनी गोपनीय बात बाहर कहने वाला मामला तो आजकल रहा नहीं। फिर भी कम से कम तीन मर्यादा सूत्र परिभाषित किए जा सकते हैं। पहला, पार्टियां एक-दूसरे की आलोचना करें, लेकिन कोई घटिया छीछालेदर देश के बाहर नहीं की जानी चाहिए।

दूसरा, एक-दूसरे के शासन पर टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन ऐसी कोई बात न हो जो पूरे देश की साख को गिराए। तीसरा, हमारी जो भी समस्याएं हों, न तो विदेशियों से दखलअंदाजी की मांग करें और न ही उनके मामले में हम दखल दें।

पहली कसौटी को लें तो राहुल गांधी के बयान में घटिया स्तर की छीछालेदर जैसी कोई बात नजर नहीं आती। उन्होंने संसद में विपक्षी नेताओं के माइक बंद करने की बात कही, विपक्षियों पर एजैंसियों के छापे का जिक्र किया और विपक्षी नेताओं पर पेगासस के जरिए जासूसी करने की बात कही।

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यह सब तथ्य जगजाहिर हैं। राहुल गांधी ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो गोपनीय था। भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला इन्हीं तरीकों से किया जा रहा है।

अगर एक देश का सांसद दूसरे देश के सांसदों से बंद कमरे में बात करेगा तो वह इन सवालों पर चर्चा नहीं करेगा तो क्या करेगा? इस बयान की तुलना आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2022 में बर्लिन में खुली सभा में दिए गए भाषण से कीजिए।

वहां मोदी जी ने राजीव गांधी पर तंज कसते हुए कहा था कि अब वह दिन नहीं रहे कि जब एक रुपए में से सिर्फ 15 पैसे नीचे पहुंचते थे। यही नहीं, उन्होंने अशोभनीय तरीके से लोगों से पूछा कि वह कौन सा ‘पंजा’ था जो 85 पैसे घिस लेता था।

विदेश में बोली इस सस्ती चुनावी भाषा पर प्रधानमंत्री ने न तो माफी मांगी, न ही कोई जवाब दिया। शायद भाजपा के नेताओं की शिकायत दूसरी कसौटी को लेकर है कि राहुल गांधी द्वारा भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं और मर्यादाओं के पतन के बारे में व्यक्त की गई चिंता से देश की छवि धूमिल हुई है।

ऐसा तब होता अगर राहुल गांधी कहते कि भारत में लोकतंत्र की रक्षा करने वाली शक्तियां नहीं रहीं या फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था चलाना हिन्दुस्तानियों के बस की बात नहीं है।

उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा, बल्कि भारत के जनमानस में लोकतांत्रिक व्यवस्था की गहराई को रेखांकित किया। उनके इस बयान की तुलना आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2015 में साऊथ कोरिया की राजधानी सियोल में दिए गए बयान से कीजिए।

वहां पिछली सरकारों पर हमला करते हुए मोदी जी ने कहा था कि एक समय था जब लोग सोचते थे कि पता नहीं पिछले जन्म में क्या पाप किए थे जो हिन्दुस्तान में पैदा हुए। जाहिर है देश की छवि धूमिल करने की कसौटी पर मोदी जी के बयान को मर्यादा भंग का बड़ा दोषी माना जाना चाहिए।

तीसरी कसौटी विदेशियों का दखल आमंत्रित करने के बारे में है। एमरजैंसी के दौर में तत्कालीन जनसंघ के संसद सदस्य सुब्रमण्यन स्वामी सहित कई विपक्षी नेताओं ने अमरीका और अन्य देशों से भारत का लोकतंत्र बचाने के लिए दखल देने की मांग की थी।

यह बहस का मुद्दा है कि क्या ऐसा करना चाहिए या नहीं, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है। भाजपा के नेता आरोप तो लगा रहे हैं, लेकिन राहुल गांधी का एक भी ऐसा बयान दिखा नहीं पा रहे हैं जहां उन्होंने इंगलैंड के सांसदों से भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की गुहार लगाई हो।

जाहिर है ऐसा आरोप मोदी जी पर भी नहीं है। हां, उन्होंने इस मर्यादा को दूसरी दिशा से भंग जरूर किया था जब उन्होंने अमरीका के ह्यूस्टन शहर में 2019 में हुई रैली में ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ के नारे को दोहरा कर खामखां अमरीकी चुनाव में दखल देने जैसी हरकत की थी। इस असफल और हास्यास्पद कोशिश का खमियाजा देश को भुगतना पड़ा था।

सवाल यह है कि अगर ये तीनों कसौटियां या राहुल गांधी पर लागू नहीं होतीं तो भाजपा इतनी विचलित क्यों है? या तो वह अडानी प्रकरण से ध्यान हटाने के लिए बवाल मचा रही है या फिर राहुल गांधी ने मोदी सरकार की दुखती रग पर हाथ रख दिया है।

सच यह है कि भारत की लोकतांत्रिक छवि तब धूमिल होती है जब सारी दुनिया को पता लगता है कि भारत सरकार ने बी.बी.सी. की डॉक्यूमैंट्री को बैन कर दिया है और बी.बी.सी. पर छापे मारे हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था की छवि तब धूमिल होती है जब पूरी दुनिया हिंडनबर्ग रिपोर्ट से जानती है कि शेयर मार्कीट में धांधली को रोकने के लिए भारत सरकार या उसकी एजैंसियों ने कुछ भी नहीं किया। एक सशक्त देश के रूप में भारत की छवि तब गिरती है जब दुनिया सैटेलाइट से देखती है कि चीन ने भारत के 2000 वर्ग किलोमीटर पर कब्जा कर लिया परंतु भारत सरकार चुप्पी साधे बैठी है।

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