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भारत में चुनावी राजनीति पतन की राह पर ?

भारत में चुनावी राजनीति पतन की राह पर ?

– राम पुनियानी

उस समय लव जेहाद, राम मंदिर, गाय, घर वापसी, ‘हिन्दू खतरे में हैं’ जैसे मुद्दे दूर-दूर तक नहीं थे.

 

भारत के स्वाधीन होने के बाद हुए चुनावों में कई दशकों तक लगातार स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आसानी से जीत हासिल करती रही. उस समय कांग्रेस के मुख्य विरोधियों में कम्युनिस्ट व समाजवादी पार्टियां शामिल थीं.

भाजपा का पूर्व अवतार जनसंघ अपने अस्तित्व में आने के कई सालों बाद तक सत्ता में आने के बारे में सोचने की स्थिति में भी नहीं था. भाजपा भी लंबे समय तक कमजोर बनी रही.

उस दौरान चुनावों में जो मुद्दे उठाए जाते थे उनमें औद्योगिक विकास, सरकारी नीतियां और कल्याण योजनाएं, राज्य का चरित्र समाजवादी होने की जरूरत, रोजगार आदि शामिल थे . उस समय लव जेहाद, राम मंदिर, गाय, घर वापसी, ‘हिन्दू खतरे में हैं’ जैसे मुद्दे दूर-दूर तक नहीं थे.

उस समय समाजवाद को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और समाजवाद की स्थापना के स्वप्न को पूरा करने की बात सभी पार्टियां कहा करती थीं . यहां तक कि जब जनसंघ के सदस्यों ने जनता पार्टी को तोड़कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया उस समय भी उसने गांधीवादी समाजवाद का नारा बुलंद किया.

आज सात दशक बाद चुनावी राजनीति में जबरदस्त गिरावट देखी जा सकती है. इस समय राजनीति में भावनात्मक मुद्दों का बोलबाला है.

दुनियावी और लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े मुद्दों को दरकिनार करने की शुरूआत राम मंदिर आंदोलन से हुई थी. मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद इस आंदोलन में और तेजी आई . तभी से चुनावी राजनीति में भावनात्मक और पहचान से जुड़े मुद्दों का बोलबाला शुरू हुआ.

हालात यहां तक पहुंच गए कि सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान किसी भी पार्टी ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का एक बार भी प्रयोग नहीं किया. यह बात हमें इस चुनाव के विजेता नरेन्द्र मोदी ने स्वयं बताई . मोदी का यह मानना था कि धर्मनिरपेक्षता शब्द का चुनावी राजनीति से गायब हो जाना, संघ और भाजपा की राजनीति की सफलता का प्रतीक है.

अब तो ऐसा लगता है कि किसी भी मुद्दे को धार्मिेक या साम्प्रदायिक रंग दिया जा सकता है . ‘कोरोना जेहाद’ शब्द यह बताता है कि राजनीति में अब शायद एक भी ऐसा मुद्दा नहीं बचा है जिसे साम्प्रदायिक रंग न दिया गया हो.

भाजपा पिछले कुछ दशकों में पहचान की राजनीति और पहचान से जुड़े मुद्दे उठाने की कला में सिद्धहस्त हो गई है . मीडिया, जो भाजपा के समक्ष दंडवत है, साम्प्रदायिक तत्वों की कथनी और करनी को भरपूर प्रचार दे रहा है.

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अरविंद केजरीवाल इस खेल में विघटनकारी ताकतों से तनिक भी पीछे नहीं रहना चाहते . गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनावों में केजरीवाल की पार्टी अपने लिए जगह बनाना चाहती है.

इस पार्टी का लंबे समय से यह दावा रहा है कि उसकी रूचि केवल शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली व पानी जैसे मुद्दों में ही है. पार्टी ने यह भी साफ कर दिया है कि वंचित वर्गों के पक्ष में सकारात्मक कार्यक्रमों व अनुसूचित जाति, जनजाति व ओबीसी से जुड़े मुद्दों में उसकी कोई रूचि नहीं है.

यह तब और साफ हो गया जब केजरीवाल ने कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया . ‘आप’ के नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) व नागरिकों की राष्ट्रीय पंजी (एनआरसी) के प्रति नजरिए का खुलासा इस बात से हो गया था कि उसने शाहीन बाग आंदोलन को भाजपा की चाल बताया था.

‘आप’ के लिए अंसख्य मुसलमानों की नागरिकता को संदेह के घेरे में डालना महत्वपूर्ण नहीं था.

शाहीन बाग के बाद दिल्ली में भड़की हिंसा को ‘आप’ ने रोहिंग्या मुसलमानों पर मढ़ दिया और मुसलमानों के बारे में जो कही गईं बेहूदा बातों के बारे में उसने एक शब्द भी नहीं कहा.

बिलकिस बानो के बलात्कारियों को जेल से जल्दी रिहा किए जाने के बारे में पूछे जाने पर केजरीवाल सरकार में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने छूटते ही कहा कि ‘‘यह उनके लिए मुद्दा नहीं है” . जब गुजरात के खेड़ा में मुसलमानों को खंभे से बांधकर पीटा गया तब भी केजरीवाल चुप्पी साधे रहे.

केजरीवाल के प्रतिगामी दृष्टिकोण का सबसे बड़ा उदाहरण था राजेन्द्रपाल गौतम मामले में उनकी प्रतिक्रिया. राजेन्द्रपाल गौतम, जो कि ‘आप’ सरकार में मंत्री थे, ने हजारों अन्य दलितों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था और  अम्बेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं लीं थीं.

इसके बाद भाजपा ने गुजरात में यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि केजरीवाल हिन्दू विरोधी हैं. इसके जवाब में केजरीवाल, जो राजनैतिक चालबाजियों में माहिर हैं, ने यह बयान दिया कि नोटों पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर छापी जानी चाहिए.

इस मांग से भाजपा हक्का-बक्का रह गई. उसे समझ में नही आ रहा है कि वह अपने से भी अधिक हिन्दुत्ववादी से कैसे निपटे. भाजपा को यह तक कहना पड़ा कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में ऐसा नहीं किया जा सकता.

केजरीवाल आईआईटी स्नातक हैं और कम से कम उनसे तो यह अपेक्षा नहीं की जाती कि उनके दिमाग में यह आएगा कि नोटों पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर छापने से भारतीय अर्थव्यवस्था बेहतर होगी.

यह तार्किक / वैज्ञानिक सोच का मखौल है. परंतु यहां पर भी केजरीवाल शायद मोदी से आगे निकलने की जुगत में हैं. मोदीजी ने यह दावा किया था कि पुरातन काल में प्लास्टिक सर्जरी थी और वह इतनी ऊंचाईयों तक पहुंच चुकी थी कि हाथी का सिर मनुष्य के धड़ पर लगाया जा सकता था.

हमारी सरकार की शोध से संबंधित नीतियां भी ऐसी ही हैं. आईआईटी दिल्ली, पंचगव्य (गाय के दूध, मूत्र, गोबर, दही और घी का मिश्रण) पर एक शोध परियोजना का समन्वय कर रहा है. शोध की शर्तों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि गाय जर्सी प्रजाति की नहीं होनी चाहिए.

इससे भी ज्यादा मजेदार बात यह है कि दिल्ली स्थित एम्स यह अध्ययन कर रहा है कि कोमा में पड़े मरीजों पर महामृत्युंजय जाप का क्या असर होता है.

‘आप’ साम्प्रदायिक राजनीति का वैकल्पिक मंच बन चुकी है और बड़ी धूर्तता से हिन्दू/साम्प्रदायिक कार्ड खेल रही है. केजरीवाल की पार्टी अपने नेता का अंधानुकरण करने वालों का हुजूम बन गई है.

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लक्ष्मी और गणेश का चित्र नोटों पर छापने की मांग केजरीवाल द्वारा किए जाने के बाद उनकी पार्टी के नेताओं ने भी यही राग अलापना शुरू कर दिया . यहां तक कि आतिशी मरलेना ने यह तक कह दिया कि यह मांग 130 करोड़ भारतीयों की इच्छा को प्रतिबिंबित करती है.

सभी तानाशाहों को यह भ्रम होता है कि वे पूरे देश के लिए बोल रहे हैं . जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब नरेन्द्र मोदी का भी यह दावा होता था कि वे 5 करोड़ गुजरातियों की आवाज हैं.

‘आप’ आरएसएस के समर्थन से शुरू हुए अन्ना आंदोलन की उपज है . वह राजनीति की बिसात का एक त्रासद मोहरा बन गई है . अनुच्छेद 370, शाहीन बाग, खेड़ा और बिलकिस बानो मुद्दों पर पार्टी का दृष्टिकोण यह बताता है कि उसके राज में मुसलमानों और ईसाईयों की क्या स्थिति होगी.

भारत को आज एक ऐसी पार्टी की जरूरत है जो समाज के सभी तबकों को पूरे सम्मान और गरिमा के साथ अपनाए . हमें एक ऐसी पार्टी की जरूरत है जो रोजगार और जनकल्याण के मुद्दों को प्राथमिकता दे और समाज के वंचित वर्गों का ख्याल रखे . हमें ऐसी पार्टी की जरूरत है जो राजनीति और धर्म का घालमेल न करे.

‘आप’ ने एक साफ-सुथरी और नए किस्म की राजनीति का वायदा किया था. परंतु वह क्या कर रही है यह हम सबके सामने है. वह लक्ष्मी और गणेश के चित्र नोटों पर प्रकाशित करना चाहती है और लोकपाल की मांग को उसने इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया है.

 (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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