[t4b-ticker]
[]
Home » Editorial & Articles » भारत जोड़ो यात्रा: देश को एक करने में चुनौतियां
भारत जोड़ो यात्रा: देश को एक करने में चुनौतियां

भारत जोड़ो यात्रा: देश को एक करने में चुनौतियां

– राम पुनियानी

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी के नेतृत्व में शुरू की गई भारत जोड़ो यात्रा को जबरदस्त जनसमर्थन मिल रहा है. ऐसा लगता है मानो सांझा राष्ट्रवाद में अपने यकीन को रेखांकित करने के लिए लोग इस तरह के किसी आयोजन का इंतजार ही कर रहे थे.

पिछले कुछ दशकों में, और विशेषकर कुछ वर्षों में, सांझा भारतीय राष्ट्रवाद कमजोर हुआ है. राहुल गांधी की यात्रा को मिल रहे जनसमर्थन को राष्ट्रीय मीडिया और प्रमुख टीवी चैनल भले ही नजरअंदाज कर रहे हों परंतु सोशल मीडिया इस कमी को काफी हद तक पूरी कर रहा है.

सोशल मीडिया पर ऐसे चित्रों और वीडियो की भरमार है जो यह बताते हैं कि हर आयु वर्ग के लोग इस यात्रा से जुड़ रहे हैं.

यात्रा को मिल रहे व्यापक जनसमर्थन का एक कारण यह है कि पिछले कई वर्षों से देश में ‘‘आईडिया ऑफ इंडिया” को कमजोर किया जा रहा है. भारतीय संविधान के मूल्यों को भी किनारे कर दिया गया है.

इसके साथ ही सरकार सामाजिक समानता स्थापित करने और गरीबों और अमीरों के बीच खाई को पाटने के लिए कुछ नहीं कर रही थी. संविधान राज्य से यह अपेक्षा भी करता है कि वह वैज्ञानिक समझ को बढावा देगा. इस दिशा में भी सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही थी.

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जो जातिगत और लैंगिक समानता के लिए प्रतिबद्ध है. भारत में ‘‘दैवीय प्राधिकार” से शासन करने वाले राजाओं का युग औपनिवेशिक काल में ही समाप्त हो गया था. जहां औपनिवेशिक शासकों ने भारत को लूटने में कोई कसर नहीं उठा रखी वहीं यह भी सच है कि उनके शासनकाल में हमारा समाज बदला.

आवागमन और संचार के साधनों के विकास और आधुनिक शिक्षा व्यवस्था व प्रशासनिक प्रणाली ने जातिगत और लैंगिक समीकरणों को बदला और विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच एकता को बढ़ावा दिया. सामंती मानसिकता वाले लोगों ने राष्ट्र निर्माण की इस प्रक्रिया से सुरक्षित दूरी बनाए रखी.

उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने में ब्रिटिश सरकार की मदद की जिसकी अंतिम परिणिती था देश का विभाजन और दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे त्रासद पलायन.

एक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास, औपनिवेशिक शासन के विरूद्ध संघर्ष के दौर में ही शुरू हो गया था. स्वतंत्रता के बाद देश का औद्योगिकरण हुआ और शिक्षा, सिंचाई व स्वास्थ्य अधोसंरचना विकसित की गई.

इस दौरान साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, पहचान से जुड़े मुद्दों पर ही बात करते रहे. समय के साथ हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने देश पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया. उनके प्रति वफादार लोग हर क्षेत्र में घुसपैठ बनाने लगे.

READ ALSO  कांग्रेस घोषणापत्र और हेट स्पीच पर प्रतिबन्ध

राज्य तंत्र में भी उनके समर्थक विभिन्न पदों पर काबिज हो गए. उन्होंने कारपोरेट जगत में अपने मित्रों की सहायता से मीडिया पर भी कब्जा जमा लिया. उन्होंने ‘सोशल मीडिया सेल’ भी बनाए ताकि सोशल मीडिया का उपयोग भी उनकी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए किया जा सके.

उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की हमारी विरासत को कमजोर किया. उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर प्राणघातक चोट की और सामाजिक न्याय की स्थापना की राह में रोड़े अटकाए. इसके साथ ही, क्षेत्रीय सिपहसालार भी उभर आए जिनका एजेंडा स्थानीय मुद्दों पर आधारित था और जिनका लक्ष्य केवल एक सीमित क्षेत्र में सत्ता हासिल करना था. वामपंथी दलों, जिन्हें हाशियाकृत वर्गों के अधिकारों का रक्षण करना था, खुद ही हाशिए पर खिसक गए.

कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि भाजपा की विघटनकारी राजनीति हाशियाकृत समुदायों को भी अपने झंडे तले लाने का पुरजोर प्रयास कर रही है. उसकी पितृ संस्था, आरएसएस दलितों और आदिवासियों को हिन्दू राष्ट्रवाद से जोड़ने में जुटी हुई है.

उसने जमीनी स्तर पर सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अगणित सूक्ष्म पहचानें विकसित कर दी हैं ताकि समाज को बांटा जा सके. इसके साथ ही एक विशद और व्यापक हिन्दू पहचान को भी बढ़ावा दिया जा रहा है.

इस पहचान को मजबूती देने के लिए राममंदिर, लव जिहाद, गाय-बीफ जैसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं एवं हिन्दुओं में यह डर पैदा किया जा रहा है कि देश में मुसलमानों की आबादी जल्दी ही हिन्दुओं से ज्यादा हो जाएगी.

कई दशकों बाद भारत जोड़ो यात्रा, हवा के एक ताजा झोंके की तरह आई है. इससे निश्चित तौर पर देश मजबूत होगा और कांग्रेस एक बेहतर पार्टी बनेगी. इस यात्रा से वे सामाजिक समूह सामने आएंगे जो कमजोर और हाशियाकृत समुदायों के अधिकारों, प्रजातांत्रिक मूल्यों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के गरिमापूर्वक जीवन बिताने के हक के समर्थक हैं.

यह यात्रा उन्हें एक मानवीय प्रजातांत्रिक समाज को आकार देने के उनके अभियान के लिए एक मंच प्रदान करेगी – ऐसा मंच जो समाज के सभी तबकों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा करने का काम करेगा.

यात्रा का एक अन्य सराहनीय पहलू यह है कि बहुवाद, विविधता और प्रजातंत्र के मूल्यों में यकीन रखने वाले अनेक सामाजिक संगठन एवं राजनैतिक दल इसका समर्थन कर रहे हैं. वे यात्रा के कुछ हिस्सों में भागीदारी भी कर रहे हैं.

अब तक यात्रा जिन इलाकों से गुजरी है उनमें से किसी में भी मुसलमानों की बहुसंख्या नहीं थी. जहां हमें मुस्लिम नेतृत्व के कट्टरपंथी तबके का पुरजोर विरोध करना चाहिए वहीं हमें आम मुसलमानों (और ईसाईयों) जो कि साम्प्रदायिक राजनीति के पीड़ित रहे हैं, से जुड़ने का हर संभव प्रयास करना चाहिए.

READ ALSO  ऐ लीडराने-क़ौम ख़ताकार तुम भी हो

हिजाब पहने हुए एक छोटी सी लड़की के राहुल गांधी के बगल में चलने का मजाक बनाए जाने के पीछे निश्चित तौर पर साम्प्रदायिक ताकते थीं. यह जरूरी है कि यात्री धार्मिक अल्पसंख्यकों से घुलें-मिलें. हमारे देश के राष्ट्रपिता यही करते थे.

हालात को बेहतर करने के लिए न तो कोई शार्टकट है और ना ही कोई जादू की छड़ी. पहचान की राजनीति के मजबूत होने से देश बहुत कमजोर हुआ है. सकारात्मक भेदभाव के जरिए विभिन्न जातियों के बीच के अंतर को पाटने के प्रयासों की गति भी धीमी हुई है.

यह यात्रा एक मील का पत्थर है और ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ को देश की सामूहिक चेतना का अंग बनाने और जाति के उन्मूलन की प्रक्रिया की शुरूआत है. यह जरूरी है कि यात्रा उन इलाकों से गुजरे जहां मुसलमानों व पूर्व अछूतों की बड़ी आबादी हो.

भारत जोड़ो (और नफरत छोड़ो) के नारे को जनता का प्रेम और समर्थन मिल रहा है. हमें आर्थिक, सामजिक और लैंगिक असमानता के खिलाफ संघर्ष शुरू करना होगा. ऐसा कर हम उस भारत को पुनर्जीवित कर सकेंगे जिसका सपना हमने स्वाधीनता संग्राम के दौरान देखा था.

इस बात की आवश्यकता भी है कि यात्रा द्वारा जिस सकारात्मक वातावरण का सृजन किया जा रहा है उसे आगे भी बनाए रखने के लिए प्रयास किए जाएं. और यही सबसे बड़ी चुनौती होगा.

देश में आरएसएस की लाखों शाखाएं हैं जो दिन-रात पहचान की राजनीति को मजबूती देने और उस प्राचीन भारत का महिमामंडन करने में जुटी रहती हैं, जिसमें किसी भी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण उसकी जाति, वर्ण और लिंग से होता था.

आज जरूरत इस बात की है कि सेवादल जैसे संगठनों को मजबूत किया जाए और ऐसे सामुदायिक केन्द्र स्थापित हों जो शांति और सौहार्द के मूल्यों को बढ़ावा दें. हमंे यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी भारत के अधिकांश लोग शांति और प्रेम की राह पर ही चलना चाहते हैं.

लोगों की इस मूल मनोवृत्ति को उन ताकतों ने दबा दिया है जो न तो राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा थीं और ना ही उन्होंने भारत को एक राष्ट्र बनाने वाली किसी गतिविधि में कभी हिस्सेदारी की. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्माेनी एवार्ड से सम्मानित हैं) .

 

Please follow and like us:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

five × four =

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Scroll To Top
error

Enjoy our portal? Please spread the word :)