तहज़ीब का लबादा ओढ़े गंदे समाज की कड़वी सच्चाई हम सुन्ना ही नहीं चाहते

हाल ही में मुझे देहली में एक ऑल इंडिया मुहिम “हर क़दम स्वच्छता की ओर” में मेहमाने ख़ुसूसी के तौर पर शरीक होने की दावत मिली। इस मौक़े पर जब मैंने ग़ौर किया तो एक ख़ास हक़ीक़त मेरे सामने आई और वह यह कि आज जो लोग सबसे ज़्यादा इंसानी तहज़ीब के लीडर होने का दावा करते हैं, सबसे ज़्यादा गंदे वही लोग होते हैं।हम अमेरिका और यूरोप की इस लिहाज़ से तारीफ करते हैं कि वे बहुत साफ-सुथरे देश हैं। उनमें कहीं गंदगी दिखाई नहीं देती है। मगर यह एक सच्चाई है कि ख़ुद को तरक़्क़ीयाफ्ता मुल्क समझने वाले देश ही दुनिया का सबसे ज़्यादा कूड़ा और पोल्यूशन पैदा करते हैं। दुनिया में एक साल में हर शख़्स औसतन 300 किलो कूड़ा पैदा करता है और तरक़्क़ीयाफ्ता मुल्क (Developed Countries) इससे कहीं ज़्यादा कूड़ा पैदा करते हैं।
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मिसाल के तौर पर हर अमरीकी औसतन 850 किलो कूड़ा हर साल पैदा करता है। उसके मुक़ाबले भारत में एक साल में हर शख़्स औसतन 170 किलो कूड़ा पैदा करता है। नई तहज़ीब के सेंटर के रूप में जो जितना बड़ा शहर है वह उतना ही ज़्यादा गंदगी के ढेर पर बैठा नज़र आता है। यह सही है कि तरक़्क़ी के नाम पर अपनी पीठ थपथपाने वाले देशों या शहरों में गंदगी नज़र नहीं आती है। मगर वहां की गंदगी और कूड़ा कहीं और फैंक दिया जाता है।
जिस तरह से शानदार कार्पेट से सजे कमरे में गंदगी नज़र नहीं आएगी मगर उस कार्पेट के नीचे छुपी गंदगी को तलाश करने वाले तलाश कर सकते हैं। आज की तहज़ीब की ट्रेजेडी यही है कि उसे अपने गुनाहों पर पर्दा डालने और अपनी गंदगी को छुपाने का हुनर आता है।
कोरोना महामारी ने यह साबित कर दिया है कि तरक़्क़ी का दावा करने वाले देश या ऐसे देशों के बड़े शहर और उन शहरों के पाॅश इलाक़े सेहत के लिहाज़ से पिछड़े देशों, छोटे शहरों या गांवों के मुक़ाबले में कितने कमज़ोर हैं। अचानक सामने आने वाली बीमारी से लड़ने की उनकी ताक़त बहुत कम होती है, यानी सेहत के लिहाज़ से ‘पिछड़े’ लोग ‘अगड़ों’ से कहीं बेहतर होते हैं।
सेहत और सफाई-सुथराई के नाम पर मौजूदा तहज़ीब ने जो मिथक गढ़े हैं वे बस उस पर ढके हुए एक ख़ूबसूरत लबादे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। इन इश्यूज़ पर एक नये अंदाज़ से सोचने की ज़रूरत है।
इस मामले में एक मिथक यह भी गढ़ा गया है कि “मुसलमान गंदे होते हैं”। जब मुझसे कोई ऐसा कहता है तो मैं उससे कहता हूं कि गल्फ के देशों में जाकर देखो कि वहां के शहर कितने साफ-सुथरे होते हैं। सामने वाला झट से कह उठता है कि वे तो अमीर देश हैं। इस पर मैं उनसे कहता हूं कि बस साबित हुआ कि गंदगी का संबंध किसी धर्म से नहीं बल्कि या तो लोगों की ख़ुशहाली से होता है या फिर उस निज़ाम से होता है जो अपने ही आसपास कुछ इलाक़ों को जानबूझकर गंदा रखता है या फिर अपना कूड़ा और गंदगी किसी और पर थौप देता है।
युरोप और अमेरिका अपना कबाड़ ग़रीब मुल्कों में डंप करना चाहते हैं और शहर के पाॅश इलाक़ों का कूड़ा वहां की स्लम बस्तियों के आसपास फैंक दिया जाता है। भारत के साफ-सुथरे शहरी इलाक़ों में देश की राजधानी दिल्ली ही बहुत पीछे है। यह दुनिया की सबसे ज़्यादा पोल्यूशन वाली राजधानी और देश में सबसे ज़्यादा कूड़ा पैदा करने वाला शहर भी है। इसके मुक़ाबले में कई मुस्लिम देशों की राजधानियां बहुत बेहतर हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सफाई सुथराई का संबंध किसी धर्म से नहीं है बल्कि लोगों की ख़ुशहाली, अच्छी तालीम और बेदारी से है। सभी धर्म सफाई-सुथराई पर बहुत ज़ोर देते हैं और इस्लाम में तो इसकी ख़ास अहमियत है जहां इसे – आधा ईमान – बताया गया है।
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इस मौक़े पर मुझे एक वक़ेआ याद आता है। मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। सुबह के वक़्त पड़ोस के कूपे से मुझे एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी। फिर एक औरत को मैंने यह पूछते हुए सुना कि वह क्यों रो रहा है। जवाब बड़ा अजीब था। शायद बच्चे की मां ने जवाब दिया था, “मेरा बेटा मुसलमान हो गया है, बिना मुंह धोये बिस्कुट मांग रहा है। मैं नहीं दे रही हूं तो ज़िद कर रहा है।”
यह क्लासिकल जवाब सुनकर मैं फौरन अपनी बर्थ से नीचे कूदा और पास के कूपे में जाकर बोला, “बहन जी! शायद इस पूरे डिब्बे में मैं अकेला मुस्लिम पैसेंजर हूं। मैं सबसे पहले उठा, वुज़ू बनाया और नमाज़ पढ़ी। फिर भी अगर यह मुन्ना मुसलमान हो गया है तो इसे मुझे दे दीजिये।” वह शर्मिंदा हो कर हंसने लगी और माफी मांगने लगी। इस ग़लतफहमी के लिए वह औरत ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि ऐसे लोग हैं जो नित नये मिथक गढ़ते हैं और समाज में ख़ुद को तहज़ीब का रहनुमा समझते हैं। दर असल वे तहज़ीब के नाम पर एक लबादा ओढ़े हुए ऐसे चालाक लोग होते हैं जो इस तरह के मिथकों से अपने स्वार्थ साधते रहते हैं।
बहरहाल तन, मन और अर्बन को साफ-सुथरा रखना एक सच्ची तहज़ीब का तक़ाज़ा है और तहज़ीब के दावेदार लोगों को ख़ुद से पहल करके कम कूड़ा और कम पोल्यूशन पैदा करने के तरीक़े ढूंढने होंगे ताकि धरती की पवित्रता को बचाया जा सके।