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भरोसा कर नहीं सकते ग़ुलामों की बसीरत पर

भरोसा कर नहीं सकते ग़ुलामों की बसीरत पर

(अपनी लीडरशिप की ज़रूरत से इनकार ज़ेहनी ग़ुलामी की इन्तिहा और अपनी तारीख़ से नावाक़फ़ियत है)

Kalimul Hafeez,Politician

इन्सान जब अपने बुलन्द मक़ाम को भूल जाता है तो इन्तिहाई पस्ती में जा गिरता है। मुसलमानों के मक़ाम और मंसब के बारे में क़ुरआन में क्या अलफ़ाज़ इस्तेमाल किये गए हैं इसे हम सब अच्छी तरह जानते हैं। क़ुरआन ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लानेवालों को ‘ख़ैरे-उम्मत’ के लक़ब से नवाज़ा है यानी कहा है कि तुम बेहतरीन उम्मत हो, तुमको सारे इन्सानों की इमामत के लिये बरपा किया गया है। तुम तमाम इन्सानियत को भलाई का हुक्म देते हो, उन्हें बुराइयों से रोकते हो।

एक जगह फ़रमाया गया कि तुम ही सरबुलन्द रहोगे अगर तुम मोमिन हो। सूरा नूर में फ़रमाया “तुम में से उन लोगों से, जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने नेक काम किये हैं, अल्लाह वादा कर चुका है कि उन्हें ज़रूर ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाएगा, जैसे कि उन लोगों को ख़लीफ़ा बनाया था जो उनसे पहले थे और यक़ीनन उनके लिये उनके इस दीन को मज़बूती के साथ जमा देगा, जिसे उनके लिये वो पसन्द कर चुका है और उनके इस ख़ौफ़ व ख़तर को वो अम्न व अमान से बदल देगा।”

क़ुरआन की इन साफ़-साफ़ तालीमात के बावजूद अगर एक मुसलमान सियासी नेता पूरे ज़ोर के साथ ये कहता है कि “कुछ लोग गुमराह हो गए हैं, भारत में अपनी लीडरशिप की बात करते हैं, जिन्हें अपनी लीडरशिप बनाना है वो पाकिस्तान जाएँ, यहाँ हमारा नेता हिन्दू ही रहता है।” तो मैं समझता हूँ कि इस सियासी नेता को न अपने दीन का इल्म है, न अपनी तारीख़ का और न ही उसे अपने मक़ाम का एहसास है।

मैं ये बात साफ़ कर दूँ कि मैं किसी ग़ैर मुस्लिम लीडरशिप के वुजूद का इनकार नहीं कर रह हूँ, मैं महात्मा गाँधी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री से लेकर मौजूदा दौर के मुलायम सिंह, लालू यादव, सोनिया गाँधी को देश में उनके अपने तबक़ों का लीडर मानता हूँ, मुझे तस्लीम है कि उनकी लीडरशिप में दर्जनों मुसलमान सियासी नेताओं ने काम किया है और कर रहे हैं। लेकिन मैं इसी के साथ मौलाना मुहम्मद अली जौहर, शैख़ महमूदुल-हसन, मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद से लेकर मौजूदा दौर में बेरिस्टर असदुद्दीन उवैसी, मौलाना बदरुद्दीन अजमल क़ासमी, मुहम्मद आज़म ख़ान को भी भरत के रहनेवालों का लीडर और रहनुमा मानता हूँ।

लेकिन मैं ये तस्लीम नहीं करता कि भारत में मुसलमानों का लीडर हमेशा हिन्दू ही रहा है और भारत की एकता के लिये आगे भी हिन्दू की लीडरशिप में ही मुसलमानों को काम करना चाहिये। मैं सेक्युलर देश के सेक्युलर संविधान की रौशनी में वो बात तो नहीं कहता जो हज़रत मौलाना अशरफ़ अली थानवी (रह०) ने कही है कि “सियसत भी नमाज़ की तरह दीन का हिस्सा है, अगर नमाज़ का इमाम ग़ैर-मुस्लिम नहीं हो सकता तो सियासत का इमाम ग़ैर-मुस्लिम कैसे हो सकता है?” लेकिन अब से पहले की मुस्लिम लीडरशिप का इनकार और मौजूदा हालात में मुस्लिम सियासी लीडरशिप की ज़रूरत से कैसे इनकार किया जा सकता है।

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लगता है सियासी रहनुमा महाराष्ट्र में रहते-रहते शिव सेना की ज़बान बोलने लगे और अपने इलाक़े की दूर-अन्देशी को भूल गए। हिन्दुस्तानी मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की धमकियाँ अक्सर हिन्दू अतिवादियों की ज़बान से मिलती रही हैं, जिसपर किसी को हैरत नहीं होती मगर एक मुस्लिम सियासी नेता की आख़िर वो कौन-सी मजबूरी है जिसके चलते उसे दुश्मनों की ज़बान बोलना पड़ी, काश वो सोचते कि उनके इस बयान से ख़ुद उनकी पार्टी को कितना नुक़सान पहुँचेगा।

सिर्फ़ फ़ना हो जानेवाली दुनिया के इन टेम्पोरेरी फ़ायदों और पद के लिये दीन और शरीअत के ख़िलाफ़ और भारतीय मुसलमानों का मज़ाक़ बनवाने वाला बयान देना कहाँ की अक़लमन्दी है। हम ग़ुलामी करते-करते ये भी भूल गए कि हम एक आज़ाद देश के शहरी हैं और यहाँ के संविधान ने हर क़ौम और हर गरोह को अपना लीडर चुनने की आज़ादी दी है। हम ये भी भूल बैठे कि जिस महाशय की लीडरशिप में रहकर काम करने की बात की जा रही है ख़ुद वो ‘महाशय’ सात परसेंट यादवों के लीडर हैं।


असल में ग़ुलामी का तौक़ इन्सान को दुनिया का लालची बना देता है। दुनिया की हिर्स उसे अपने ही भाइयों के ख़िलाफ़ खड़ा कर देती है, झूटी शान व शौकत का धोखा अपनों के ख़ून से हाथ लाल करा देता है। दुनिया की हिर्स और दुनिया ख़राब हो जाने का ख़ौफ़ ही किसी से ऐसी बेहूदा बातें कराता है।
क्या अभी भी वक़्त नहीं आया है कि भारतीय मुसलमान इस बात पर ग़ौर करें कि उनके वुजूद का मक़सद क्या है? अपनी रौशन तारीख़ को सामने रखकर अपने मुस्तक़बिल को सँवारें, जिस क़ौम ने इसी इलाक़े पर सात सौ साल तक क़ियादत की हो, जिस क़ौम को लीडरशिप का पद ख़ुद कायनात के पैदा करनेवाले ने दिया हो, जिसको पैदाइशी तौर पर सरदारी की ख़ुसूसियात दी गई हों, उसी क़ौम को क्या हो गया है कि वो अपनी लीडरशिप के बारे में सोचने को भी तैयार नहीं, वो ख़ुद अपने आस-पास से कितनी बेख़बर है? कि उसे नहीं मालूम कि तीन परसेंट आबादी वाले गरोह ने भी अपना लीडर चुन लिया है?

जबकि ख़ुद उसे ये तालीम दी गई थी कि अकेले नमाज़ पढ़ने के मुक़ाबले जमाअत की नमाज़ का सवाब 27 गुना ज़्यादा है, जिसे कहा गया था कि अपने ऊपर इज्तिमाइयत को लाज़िम कर लो, जो जमाअत से बालिश्त भर भी अलग रहा वो जाहिलियत की मौत मरा, जिस को सफ़र तक के लिये ताकीद की गई थी कि अगर दो लोग भी हों तो अपने में से एक को अमीर बना लें, उसी क़ौम का एक लीडर जिस पर क़ौम को नाज़ था, जिससे उम्मीद थी कि वो क़ौम की नैया पार लगाएगा, उसी ने क़ौम को लीडरशिप के पद से हटा कर उन लोगों की ग़ुलामी में दे दिया जिन्होंने आज तक मुसलमानों का कोई भला नहीं किया।

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जिस गरोह को सारी दुनिया की इमामत करना थी, जिसके कन्धों पर ज़िम्मेदारी थी कि वो सारे इन्सानों की इमामत करे और जिसने तारीख़ के एक लम्बे हिस्से तक ये फ़र्ज़ अंजाम भी दिया वो गरोह ज़ेहनी ग़ुलामी की इतनी पस्ती और गहराई में चला जाएगा कि अपने वुजूद का ही इनकार कर बैठेगा। आज ये कहने वाले कि हमारा लीडर हिन्दू ही रहता है क्या कल वो ये नहीं कह सकता कि भारत में हमारे माई बाप हिन्दू ही थे और हिन्दू ही रहेंगे।

अफ़सोस होता है और दिल दुखता है, मुस्तक़बिल अन्धकार में नज़र आता है जब किसी मुस्लिम लीडर के मुँह से ग़ैरों की ग़ुलामी की बू आती है। आख़िर किस चीज़ की कमी है मुसलमानों में, क्या इनका दीन कमज़ोर है या नामुकम्मल है, जिसमें लीडरशिप के तरीक़े और आदाब न बताए गए हों, क्या इनके पास आख़िरी रसूल की शक्ल में मुकम्मल लीडर और रहनुमा नहीं है कि इन्हें किसी और लीडर की ज़रूरत पेश आए। क्या इनके अन्दर टैलेंट की कमी है, क्या वो संवैधानिक तौर पर पाबन्द हैं कि ग़ैरों को ही अपना अमीर चुनें?

आख़िर इस कम-निगाह लीडर के पास क्या दलील थी जिसकी रौशनी में उन्होंने हिन्दी मुसलमानों को पाकिस्तान जाने का मशवरा दिया? क्या मौजूदा हिन्दुस्तान की तामीर और आज़ादी में मुसलमानों का हिस्सा किसी दूसरी क़ौम से कम है? ज़रूरत है कि मुसलमान इस बात को समझें कि उनकी सियासी लीडरशिप दीनी, शरई, सियासी और समाजी तौर पर कितना ज़रूरी है? अल्लामा इक़बाल ने ठीक ही कहा था:

भरोसा कर नहीं सकते ग़ुलामों की बसीरत पर।
कि दुनिया में फ़क़त मर्दाने-हुर की आँख है बीना॥
वही है साहिबे-इमरोज़ जिसने अपनी हिम्मत से।
ज़माने के समन्दर से निकाला गौहरे-फ़र्दा॥

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