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क़यामत कब आएगी ? जब ये होगा तो ………..

क़यामत कब आएगी ? जब ये होगा तो ………..

Ali Aadil Khan Editor;s Desk

क़यामत आने ही वाली है , और इसके ये ज़िम्मेदार हैं

क़यामत कब आएगी ? अभी बताता हूँ पहले ज़रा यह समझ लें … सही और ग़लत में फ़र्क़ करने के लिए इल्म का होना ज़रूरी है .इसी लिए इस्लाम में इल्म का हासिल करना हर मोमिन पर फ़र्ज़ कर दिया गया . इल्म अंधेरों को दूर करता है . इल्म एक रास्ता है और अमल , मक़सद तक पहुँचने का ज़रिया है . इबादत सिर्फ नमाज़ ,रोज़े , तिलावत और हज का नाम  नहीं है .

बल्कि हमारी ज़िंदगी का कोई भी पहलु जो अल्लाह के हुक्म और नबी सल्ललाहु अलैहि वसल्लम के तरीके पर है वो इबादत है . जबकि इस्लाम ये सिखाता है की इंसाफ़ , अख़लाक़ और अहसान के मामले में मज़हबी या मस्लकी पहलु से कोई तफ़रीक़ नहीं होनी चाहिए वो सबके साथ यकसां होना चाहिए .

जब हम इमाने मुफ़स्सल को गहराई से समझते हैं तो इसमें ज़िंदगी के हर शोबे के मसलों का हल भी मिलता है , मगर हम  ग़ौर ही नहीं करते . बक़ौल शायर मेहवे तस्बीह तो सब हैं मगर इदराक (UNDERSTANDING ) कहाँ –ज़िंदगी खुद ही इबादत है मगर होश नहीं . दरअसल इंसानी ज़िंदगी की कामयाबी का हर रास्ता नबी अलैहिस्सलाम की अमली ज़िंदगी से होकर गुज़रता है . मगर हम ग़ौर नहीं करते .

हालाते हाज़रा के पसे मंज़र में आइये हम रब्बे कायनात की मंशा को समझते हैं

देखें दुनिया में दो जमातें हैं , हिज़्बुल्लाह और हिज़्बुश्शैतान
अल्लाह की मदद हिज़्बुल्लाह के साथ है और हिज़्बुश्शैतान को शैतानी हिमायत हासिल है मगर अल्लाह की मशीयत और मर्ज़ी के साथ ,और हिज़्बुश्शैतान को एक ख़ास वक़्त तक के लिए मोहलत (छूट ) जो मिली है वो भी अल्लाह की ही मर्ज़ी से है . ठीक इसी तरह जिस तरह चूहे को घी लगी रोटी को खा लेने तक की मोहलत है उसके बाद चूहे की शामत है . अब यह बात हर जगह लागू होती है मज़हबी ऐतबार से और समाजी व् सियासी ऐतबार से भी .

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दुनिया में हमेशा से दो क़ौमें रही हैं , ज़ालिम और मज़लूम

आज जो मज़लूम है कल वो क़ौम ज़ालिम रही होगी और उसने तौबा नहीं की थी ,,, अगर कोई क़ौम या फ़र्द तौबा कर लेता है तो मज़लूम नहीं बनता और मुजरिम भी नहीं रहता …और याद रखें , ताक़त होने के बाद ज़ुल्म को न रोकना यह ज़ालिमों की पहचान है .

आख़िरी दर्जा है की ज़ुल्म को दिल से बुरा समझा जाए , बल्कि ज़ालिमों के साथ मेल जोल भी न रखा जाए . अगर उनकी इस्लाह मक़सद हो तो अलग बात है . आज ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खामोशी को हिकमत और diplomacy समझा जाता है लेकिन एक रोज़ यही खामोश रहने वाला भी ज़ुल्म का शिकार होता है . आप सियासी दुनिया में भी देख ही रहे हैं .

इसी तरह आख़िरत में भी दो तबके होंगे दाहिने हाथ वाले और बाएं हाथ वाले . क़ुरआन हकीम की सौराह वाक़िया में आयत नो 56 में उनको असहाबुल मैमनाह और असहाबुल मशअमाह के लक़ब से पुकारा गया है लिहाज़ा जिन्होंने बदी पर नेकी को तरजीह दी होगी वो दाहिने हाथ वाले यानी जन्नती हैं और जिन्होंने नेकी पर बदी को तरजीह दी होगी वो बाएं हाथ वाले यानी जहन्नमी हैं .

रब्बे कायनात ने हर एक चीज़ की ज़िद , या कहें की दो पहलु रखे हैं … यहाँ तक की खुद अपनी ज़ात ए अक़दस की भी ज़िद पैदा कर दी यानी शैतान और नफ़्स .

आप जानते हैं मौत का वक़्त तय है ,इज़्ज़त ज़िल्लत अल्लाह की क़ुदरत में है .और अल्लाह जिसे चाहता है मुल्क अता कर देता है जिससे चाहता है मुल्क छीन लेता है .

अगर आप अपनी दुनिया और आख़िरत हसीन और सुकून वाली बनाना चाहते हो तो चलते फिरते नेकियां तलाश करो जैसे भूखा परिंदा दाना तलाश करता है और हर नेक अमल में अल्लाह की रज़ा को शामिल कर लो . वरना नेकियों का अजर फ़ानी दुनिया तक महदूद रहेगा , उसके बाद हसरत के सिवा कुछ नहीं . अगर नेकी सही अक़ीदे और अल्लाह की रज़ा के लिए की गयी होगी तो दुनिया और आख़िरत दोनों में इसका बदला है .

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अगर अपना ईमान और ज़मीर बेचकर मुल्क के बादशाह भी बन गए तो बादशाहत मौत को नहीं टाल सकती और अगर मुक़द्दर में बादशाहत , अमीरी , हुक्मरानी लिखी है तो दुनिया मिलकर उसको नहीं टाल सकती .
अब तय आपको करना है , फ़िलहाल इख़्तियार आपके पास है .

अगर अब तक की ज़िंदगी मन चाहि में गुज़र गयी और इत्मीनान ,सुकून नहीं मिला है तो अब रब चाहि गुज़ार कर देख लो और मौत का इंतज़ार करो हमेशा का ऐश और आँखों की ठंडक का सामान खुद ही देख लोगे .

तौबा और मुआफ़ी अल्लाह को राज़ी करने का सबब है और अल्लाह की रज़ा दारेन (दोनों जहां ) की कामयाबी की ज़मानत है अगर यक़ीन रखते हो तो . लिहाज़ा हर गुनाह के बाद तौबा का लिया करो और आइंदा न करने का अज़म भी . और यह रमजान का दूसरा अशरा मग़फ़िरत और तौबा के लिए ख़ास है . हर वक़्त तौबा अस्तग़फ़ार करते रहें इसके लिए किसी ख़ास वक़्त या जगह की कोई शर्त नहीं है .

आज दुनिया में ना इंसाफ़ी , ज़ुल्म और जबर अपने उरूज पर है . ख़ुसूसन फलस्तीन और ग़ाज़ा के ताज़ा हालात के पसमंज़र (परिपेक्ष ) में देखें तो दुनिया की खामोशी और डिप्लोमेसी , ख़ुसूसन अरब मुल्कों की बेहिसि , बुज़दिली , मौक़ापरस्ती और ऐशपरस्ती फ़ैसलाकुन दौर की देहलीज़ पर आ पहुंची है . और चंद दिनों या बरसों में अरबों की तबाही के साथ क़यामत वाक़ेय होने ही वाली है .वल्लाहु आलम

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