संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र का एजेंडा तरह-तरह के नैरेटिव्स को अलग-अलग तरह से बुनने और उन्हें अलग-अलग मंचों से प्रस्तुत करने पर आधारित है. संघ परिवार के लिए धार्मिक त्यौहार अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के अवसर होते हैं. वह देवी-देवताओं का इस्तेमाल भी अपने लिए लाभकारी सामाजिक-राजनैतिक सन्देश देने के लिए करता है.
हाल में समाप्त हुआ कुंभ मेला धार्मिक आयोजन की जगह राष्ट्रीय समारोह बन गया. इस बार के कुंभ में एक नई बात यह थी कि संस्कृति एवं विकास के वाहक के रूप में कुम्भ की जबरदस्त मार्केटिंग की गयी.
इस आयोजन को हिन्दू धर्म का दुनिया का सबसे बड़े आयोजन बताया गया. इतने बड़े आयोजन में श्रद्धालुओं के रहने, साफ-सफाई और परिवहन का इंतजाम करना तो सरकार की जिम्मेदारी होती है.
लेकिन इस बार देखा गया कि सरकार इस आयोजन का मानों हिस्सा बन गयी. सत्ताधारी दल से जुड़े संगठनों जैसे विश्व हिंदू परिषद, धर्मसंसद और व्यक्तिगत तौर पर साधु-संतों आदि ने इस मेले का इस्तेमाल हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के विभिन्न हिस्सों के प्रचार-प्रसार और मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाने के लिए किया.
जहां धार्मिक लोगों की दृष्टि में इस आयोजन की धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्ता बहुत अधिक है, वहीं इस बार इसे राजनैतिक रंग दे दिया गया. कुम्भ पहली बार नहीं हुआ है. मगर इस बार यह हिंदुत्व एजेंडे को आगे बढ़ाने का अवसर बन गया.
राज्य सरकार, जो भीड़ का ठीक से प्रबंधंन नहीं कर सकी, काफी समय से भक्तों को बड़ी से बड़ी संख्या में कुंभ में आने के लिए निमंत्रित करने में जुटी हुई थी. इस निमंत्रण को जन-जन तक पहुंचाने में करोड़ों रूपये खर्च हुए होंगे.
इस आयोजन में मुस्लिम व्यापारियों का बहिष्कार किया गया और उन्हें दुकानें आदि नहीं लगाने दी गईं. इसकी कई वजहें बताई गईं जिनमें से एक स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद द्वारा फैलाया गया यह झूठ था कि मुसलमान खाद्य सामग्री पर थूकते हैं इसलिए उन्हें दूर रखा गया.
ऐसे कई झूठे वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहे थे. इसके ठीक विपरीत, मुसलमानों ने भगदड़ पीड़ितों के लिए मस्जिदों के दरवाजे खोल दिए और उनके खाने-पीने का इंतजाम किया.
यहां यह जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि मुगल शासकों द्वारा श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए कुम्भ क्षेत्र में कई घाटों और शौचालयों का निर्माण करवाया गया था. इतिहासकार हेरम्भ चतुर्वेदी के अनुसार अकबर ने कुंभ की व्यवस्थाओं की निगरानी के लिए दो अधिकारियों को नियुक्त किया था.
पूरे मेला क्षेत्र में नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के होर्डिंग बड़ी संख्या में लगे हुए थे. काफी बड़ा इलाका मेले में आने वाले वीआईपी व्यक्तियों के लिए आरक्षित था, जिसकी वजह से कई बार भगदड़ में बहुत से लोग मारे गए.
परिवहन व्यवस्था अच्छी और पर्याप्त नहीं थी. नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर मची भगदड़, जिसमें कई लोग मारे गए, से यह साफ़ है .
अभी-अभी मशहूर हुए एक बाबा धीरेन्द्र शास्त्री, जिन्हें नरेन्द्र मोदी अपना छोटा भाई कहते हैं, ने प्रसन्न भाव से कहा कि जो लोग भगदड़ में मारे गए उन्हें मोक्ष मिलेगा. गंगा के पानी की गुणवत्ता बहुत ही नीचे स्तर तक गिर गई.
नदी में ई-कोलाई और मल-मूत्र घुला हुआ था. पानी की गुणवत्ता और मौतों को लेकर की गई आलोचना का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि सुअरों को गंदगी नजर आ रही है और गिद्ध लाशें गिन रहे हैं!
विश्व हिंदू परिषद ने इस स्वर्णिम अवसर का उपयोग मार्गदर्शक मंडल की बैठकों के आयोजन लिए किया. इसमें दिए गए भाषणों में मुसलमानों के खिलाफ जमकर जहर उगला गया.
मुस्लिम विरोधी प्रोपेगेंडा, जो आम तौर पर उनकी जनसंख्या में तेज वृद्धि, बांग्लादेश से घुसपैठ, गौरक्षा आदि से संबंधित रहता है, उसे इन बैठकों में बार-बार दुहराया गया.
नफरत फैलाने में एक्सपर्ट वक्ताओं जैसे साध्वी ऋतंभरा, प्रवीण तोगडिया और यति नरसिंहानंद सरस्वती ने मौके का पूरा-पूरा फायदा उठाया.उन्हें बड़ी संख्या में लोगों ने सुना.
भाजपा ने अपने राजनैतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए साधुओं का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया और सरकारी खर्च पर प्रचार हासिल किया.
ऐसे ही एक भगवाधारी ने काशी और मथुरा की मंदिर संबंधी मांगों को दुहराते हुए दावा किया कि ऐसे 1,860 मंदिरों की पहचान की गई है जिन्हें वापिस लिया जाना है. मदरसों को बंद करने और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को गुरूकुल में बदलने की मांग भी उठाई गई ताकि भारत को हिन्दूमय बनाया जा सके.
सन 2004 में प्रकाशित एक पुस्तक, जिसके लेखक इरफान इंजीनियर और नेहा दाभाड़े हैं, यह बताया गया है कि कैसे धार्मिक आयोजनों का इस्तेमाल हिंसा भड़काने के लिए किया जाता है.
हमारे उत्सव, धर्मों की सीमाओं के परे सामाजिक अवसर होते हैं. हालिया प्रवृत्ति यह हो गई है कि हिंदुओं के पर्वों पर जुलूस निकाले जाते हैं, जो मुस्लिम इलाकों से गुज़रते हैं और इस दौरान मस्जिदों पर लहरा रहे हरे झंडों को हटाकर भगवा झंडे लगा दिए जाते हैं और नंगी तलवारें हाथ में लेकर नृत्य किया जाता है.
इसके साथ ही मुसलमानों के प्रति नफरती नारे लगाए जाते हैं. इस पुस्तक में दोनों लेखकों ने बताया है कि 2022-2023 में रामनवमी के त्यौहार के दौरान यह खासतौर से किया गया.
इस पुस्तक में हावड़ा, हुगली, संभाजी नगर, वडोदरा, बिहारशरीफ और सासाराम में सन् 2023 में और (गुजरात ) के हिम्मत नगर, खंभात और झारखंड के लौहारदग्गा में 2022 में हुई हिंसा का विवरण दिया गया है.
निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए इंजीनियर लिखते हैं, ”हिंदू राष्ट्रवादियों का एक छोटा सा समूह भी धार्मिक जुलूस होने का दावा करते हुए अल्पसंख्यकों की बस्तियों से जाने की जिद कर सकता है.
राजनैतिक और गाली-गलौज भरे नारे लगाकर और हिंसक गाने और संगीत बजाकर वह कोशिश करता है कि वहां के निवासी युवक भड़क जाएं और उन पर एकाध पत्थर फेकें.
इसके आगे का काम सरकार करती है – बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को गिरफ्तार करना और उनके मकानों और संपत्तियों को कुछ ही दिनों में, बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के, ढहा देना.
एक अन्य स्तर पर इस दक्षिणपंथी राजनीति ने आदिवासी इलाकों में देवी शबरी और भगवान हनुमान को स्थापित एवं प्रचारित-प्रसारित किया है. पिछले तीन दशकों में इन इलाकों में जैसे-जैसे ईसाई-विरोधी हिंसा बढ़ी,
यहां आरएसएस से संबद्व वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद ने शबरी से जुड़ी सघन गतिविधियां शुरू कर दीं गुजरात में डांग के पास शबरी कुंभ का आयोजन किया गया.
इसी इलाके में एक शबरी मंदिर का निर्माण भी किया गया. उस समय विश्व हिन्दू परिषद के स्वामी असीमानंद इस क्षेत्र में सक्रिय थे. इन पर ही बाद में महाराष्ट्र एटीएस ने मालेगांव, अजमेर और मक्का मस्जिद में हुए बम विस्फोटों की साजिश से जुड़े होने का आरोप लगाया था.
आखिर इन इलाकों में प्रचार-प्रसार के लिए शबरी और हनुमान को ही क्यों चुना गया? शबरी एक गरीब महिला थी जिसके पास अपने भगवान (राम) को खिलाने के लिए पर्याप्त खाना नहीं था.
इसलिए उसने राम को बेर खिलाए और उन्हें खिलाने के पहले, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे मीठे हों, उन्हें स्वयं चखा. जहां शहरी इलाकों में दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा की जाती है, वहीं आदिवासी इलाकों के लिए शबरी हैं.
इसी प्रकार आदिवासी इलाकों में भगवान राम के भक्त एवं सेवक भगवान हनुमान का प्रचार-प्रसार किया जाता है. यह काफी दिलचस्प है!
हिन्दुत्ववादी राजनीति का हमारे उत्सवों पर पड़ा प्रभाव उस राजनीति के बारे में बहुत कुछ कहता है. जिस प्रकार इनमें से कुछ त्योहारों को हथियार बना लिया गया है, यह शर्मनाक है.
कुंभ मेले का इस्तेमाल जिस तरह मुस्लिम विरोधी बातें कहने के लिए किया गया है, या जिस तरह हनुमान और शबरी को आदिवासी इलाकों में प्रचारित किया जा रहा है. यह सब चिंता का विषय है. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)