[t4b-ticker]
[]
Home » Editorial & Articles » जाति जनगणना : सामाजिक न्याय की जद्दोजहद
जाति जनगणना : सामाजिक न्याय की जद्दोजहद

जाति जनगणना : सामाजिक न्याय की जद्दोजहद

राम पुनियानी

 2024 के चुनाव के ठीक पहले तक, खासतौर से राहुल गांधी, जाति जनगणना की ज़रुरत पर लगातार जोर देते रहे. विपक्ष के कई नेताओं ने उनका समर्थन किया. कुछ कांग्रेस शासित राज्यों और एनडीए शासित बिहार में भी जाति जनगणना हुई. गत लोकसभा चुनाव में यह एक मुख्य मुद्दा था जिसके चलते ही चुनाव में विपक्ष की दयनीय स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ था.

मोदी ने जाति जनगणना का जबरदस्त विरोध किया और इसे शहरी नक्सल विचारधारा का हिस्सा बताया. भाजपा की पितृ संस्था आरएसएस ने कहा कि यह हिन्दू समुदाय को बांटने की एक चाल है. इस पृष्ठभूमि में 30 अप्रैल 2025 को मोदी मंत्रिपरिषद ने आगामी जनगणना में जाति की गणना भी किए जाने का फैसला किया.

वैसे जनगणना 2021 में होनी थी लेकिन अब तक नहीं करवाई गई है. भाजपा ने इसे करवाने का फैसला इस समय क्यों किया, इस बारे में तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं.

एक अनुमान यह है कि यह फैसला जल्द ही होने वाले चुनावों, विशेषकर बिहार विधानसभा चुनाव, को ध्यान में रखकर लिया गया है. जाति जनगणना कब करवाई जाएगी और उससे प्राप्त होने वाली जानकारियों के आधार पर नीतियां बनाकर कब तक लागू की जाएंगीं, इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है.

सबसे प्रबल संभावना यही है कि इस निर्णय की वजह आगे चलकर बिहार और अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों से जुड़ी मजबूरियां हैं.

यह भी साफ है कि जाति जनगणना करवाने और आरक्षण 50 प्रतिशत की ऊपरी सीमा से बढ़ाकर और अधिक करने की बात सबसे जोरशोर से राहुल गांधी ही कर रहे थे.

मतदाताओं के बड़े वर्ग ने इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की और यही वजह है कि आरएसएस-भाजपा गठजोड़ ने सामाजिक न्याय की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम उठाया जिसकी वे अब तक जबरदस्त खिलाफत करते थे.

यह बात बेझिझक कही जा सकती है कि आरएसएस की स्थापना मुख्यतः दलितों की सामजिक न्याय के प्रति बढ़ती चेतना की मुख़ालफ़त के लिए की गई थी.

विशेषकर पिछली दो सदियों में सामाजिक न्याय के प्रणेताओं -जोतिराव फुले और उनके बाद भीमराव अम्बेडकर द्वारा इस दिशा में किए प्रयासों के बाद,जैसे-जैसे दलितों में जागरूकता बढ़ती गई ऊंची जातियों में इसे लेकर बेचैनी बढ़ती गई और उन्होंने हिंदू राष्ट्र की अवधारणा प्रस्तुत की. यह कहने की जरूरत नहीं है कि उनके सामाजिक मूल्य मुख्यतः मनुस्मृति पर आधारित थे.

आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर ने मनु द्वारा निर्धारित विधियों की सराहना करते हुए कहा था कि ये अत्यंत प्राचीन हैं और इनमें वर्तमान समय के मुताबिक बदलाव करने होंगे. गांधीजी ने, विशेषकर 1932 के बाद से, जाति प्रथा के खिलाफ ज़ोरदार अभियान चलाया.

उन्होंने गांव-गांव जाकर यह सुनिश्चित किया कि दलित सार्वजनिक स्थानों और मंदिरों में जा सकें और जल स्त्रोतों का उपयोग कर सकें, इन प्रयासों के प्रति आरएसएस का रवैया उदासीनता भरा रहा और उसने अपने स्वयंसेवकों और प्रचारकों को जाति एवं लिंग संबंधी ऊंच-नीच का प्रशिक्षण देना जारी रखा.

READ ALSO  A SYSTEMATIC STUDY OF THE HOLY QUR’ĀN

सावरकर, जिन्हें आरएसएस बहुत सम्मान की दृष्टि से देखता है, ने जाति प्रथा के खिलाफ कुछ प्रयास किए, लेकिन वे अत्यंत सतही थे और समय के साथ उनकी ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की राजनीति के चलते यह मुद्दा पीछे छूट गया.

भारतीय संविधान का विरोध करते हुए उन्होंने यह मत व्यक्त किया था कि मनुस्मृति ही आज का कानून है. संविधान की मुख़ालफ़त करते हुए आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाईजर ने कहा था कि भारतीय संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है, क्योंकि इसमें उसके पवित्र ग्रंथ, मनुस्मृति को नजरअंदाज किया गया है.

शुरूआत में उसके समर्थक वर्गों में मुख्यतः उच्च जातियां, खासकर ब्राम्हण और बनिये थे. जाति और लिंग संबधी ऊंच-नीच को मानने वाले अन्य उच्च जाति के लोगों ने भी आरएसएस का समर्थन किया.

समय के साथ हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने चुनावी मजबूरियों के चलते  दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों को अपने जाल में फसांना शुरू किया.

उन्होंने दलितों के बीच कार्य करके उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद से जोड़ने के लिए सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की. उन्होंने विभिन्न जातियों के हिंदू समाज में योगदान की तारीफों के पुल बांधे. उन्होंने इतिहास और विभिन्न जातियों की ‘महानता‘ पर केन्द्रित पुस्तकों प्रकाशित कीं और छल पूर्वक नीची जातियों को अपने साथ लाने का प्रयास किया.

हिंदू चर्मकार जाति, हिंदू वाल्मिकी जाति और हिंदू खटीक जाति ऐसी तीन प्रमुख पुस्तकें थीं जिनका विमोचन आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने किया और कहा कि सभी जातियां बराबर हैं.

उन्होंने इन जातियों के नायकों को भी चिन्हित किया, उन्हें हिन्दू समाज के नायकों के रूप में प्रस्तुत किया और उनकी मुस्लिम विरोधी की छवि बनाने का प्रयास किया. इस रणनीति का एक उदाहरण हैं राजा सुहेल देव.

पासी समुदाय के सुहेल देव का इस्तेमाल दलितों को लुभाने के लिए किया गया. उनके साथ सहभोजों का आयोजन किया गया और इसका उपयोग संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के भाग के रूप में किया गया. इससे आहिस्ता-आहिस्ता दलितों के कुछ वर्ग उनके साथ आए और उनके मैदानी कार्यकर्ता बन गए.

कई अन्य रणनीतियां भी अपनाई गईं जिनमें दलितों के बीच यह अभियान चलाना भी शामिल था कि भाजपा ऐसा इकलौता राजनीतिक दल है जो हिन्दुओं के शत्रु मुसलमानों का तुष्टिकरण नहीं करता.

उन्हें आरएसएस की शाखाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया और उनमें से कईयों को महत्वपूर्ण पद दिए गए. राम विलास पासवान और रामदास अठावले जैसे कई दलित नेताओं को पद और सुख-सुविधाओं का लालच देकर लुभाया गया. चिराग पासवान ने घोषणा की कि वे मोदी के हनुमान हैं.

READ ALSO  राहुल गांधी भारतीय राजनीति का नायक है : लालकृष्ण आडवाणी

आरएसएस-भाजपा और सामाजिक न्याय के इम्तहान की घड़ी थी मंडल आयोग की सिफारिशों पर अमल, उच्च जातियों ने इस पर अत्यंत प्रतिकूल रवैया अख्तियार किया, यहां तक कि एक व्यक्ति ने आत्मदाह तक कर लिया.

आरएसएस-भाजपा यह जानते थे कि इसका खुलकर विरोध करने पर उनकी चुनावी संभावनाओं पर बुरा असर पड़ेगा इसलिए उन्होंने जुबानी तौर पर इसकी मुख़ालफ़त करने के बजाय मंडल के खिलाफ कमंडल के रूप में उससे बड़ा मुद्दा खड़ा करने की रणनीति अपनाई.

उन्होंने बाबरी मस्जिद को ढहाने के अभियान में पूरी ताकत झोंक दी और वे उच्च जातियों का ध्रुवीकरण करने में सफल रहे. इसने उनके लिए चुनावों के माध्यम से सत्ता पर काबिज होने के रास्ते खोल दिए और मतदाताओं में उनकी साम्प्रदायिक राजनीति के प्रति समर्थन तेजी से बढ़ा.

इस बार यह देखना दिलचस्प होगा कि वे यह कैसे सुनिश्चित कर पाते हैं कि जाति जनगणना के मुद्दे से उच्च जातियों का नुकसान न हो. उच्च जातियां अब तक उनके हितों का संरक्षण करते आ रहे उनके पसंदीदा राजनैतिक दल द्वारा जाति जनगणना कराए जाने के फैसले से भयभीत हैं.

हम जानते हैं कि देश के सामाजिक  एवं राजनैतिक तंत्र में आरएसएस की ज़बरदस्त घुसपैठ है. वह पहले ही कह चुका है कि पिछड़े वर्गों की जनगणना का उपयोग राजनैतिक उद्धेश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए.

वह ऐसी चालें चलने में सक्षम है जिनके माध्यम से जाति जनगणना के पक्ष में जबानी जमाखर्च करते हुए भी सामाजिक न्याय की राह में रोड़े अटकाएं जा सकें.

वक्त आ गया है कि भारतीय संविधान के प्रति गहन प्रतिबद्धता रखने वाले सभी राजनैतिक दल एक मंच पर आकर सामाजिक न्याय के एजेंडे के पक्ष में खड़े हों.

जाति जनगणना के जरिए प्राप्त होने वाले आंकड़ों की रोशनी में नीतियां बनाकर उनका ईमानदारी से क्रियान्वयन प्राथमिकता के आधार पर करना एक न्यायपूर्ण और मानवीय समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य होगा.

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण)
इस आलेख /वीडियो में व्यक्त किए गए विचार लेखक /वक्ता  के निजी विचार हैं। इस आलेख /वीडियो में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति टाइम्स ऑफ़ पीडिया उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख /वीडियो में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख/वीडियो में दी गई कोई भी सूचना , तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार टाइम्स ऑफ़ पीडिया के नहीं हैं, तथा टाइम्स ऑफ़ पीडिया उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
Please follow and like us:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

3 × three =

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Scroll To Top
error

Enjoy our portal? Please spread the word :)