सच बात ही या रब मेरे ख़ामे से रक़म हो
सहाफ़त मज़लूम की ज़ुबान और आवाज़ है
कलीमुल हफ़ीज़
सहाफ़त, जर्नलिज़्म एक ज़िम्मेदार पेशा है। एक सहाफ़ी, जर्नलिस्ट मुल्क की तामीर में अहम रोल अदा कर सकता है। सहाफ़ी, जर्नलिस्ट की सबसे अहम ज़िम्मेदारी ग़लती से पाक और ईमानदारी के साथ रिपोर्टिंग करना है।
सहाफ़त की ज़िम्मेदारियों के दौरान कई ऐसे मक़ामात आते हैं, जहां सच लिखना या बोलना ख़तरे से ख़ाली नहीं होता और यही सच्चे और ईमानदार सहाफ़ी की शान और अज़मत है कि सहाफ़ी अपने तन मन धन को क़ुरबान करते हुए अपनी राय देने की आज़ादी को क़ुरबान न होने दे।
सहाफ़ियों के लिए जान से हाथ धोना, जेल जाना, मुक़द्दमों का सामना करना साधारण बात है। सच्चा जर्नलिस्ट वही है जो इन ख़तरों से बेख़ौफ़ होकर हक़ और सच का साथ दे। सहाफ़त, जर्नलिस्ट किसी संप्रदाय और समाज में भलाई और बुराई दोनों को फैलाने का माध्यम बन सकता है।
वह सामाजिक बिगाड़ और फ़साद के ख़िलाफ़ अपने क़लम की योग्यता को भरपूर तरीक़े से इस्तेमाल करता है। वह अपने पेशे के साथ भी इंसाफ़ करता है और क़ौम व समाज के ज़मीर के प्रतिनिधि की जि़म्मेदारी भी अंजाम देता है।
ऐसा सहाफी़, जर्नलिस्ट जो समाज में बुराई की ताक़त का औज़ार बनता है, अपने क़लम से लूट खसोट करने वालों की पीठ थपथपाता है और उनके काले कारनामों को सपोर्ट करता है; वह न केवल जर्नलिज़्म के चेहरे पर कलंक है बल्कि उसकी गिनती मुजरिमों में की जाती है।
एक ओर अगर बेज़मीर और ईमान को बेचने वाले सहाफ़ी किसी समाज और देश को तबाही के किनारे पर ले जाते हैं तो दूसरी ओर अच्छे सहाफ़ी सही अर्थ में समाज की तामीर में बेमिसाल किरदार अदा करते हैं।
एक दौर था जब सहाफ़त को इबादत का दरजा हासिल था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी सहाफ़ी ही थे जो अपनी सहाफ़त के कारण अनगिनत बार जेल गए और कई बार उनका प्रेस बंद कर दिया गया, कई बार ज़ब्त कर लिया गया।
आख़िर क्या कारण था? उनका क़ुसूर इसके सिवा क्या था कि उन्होंने रात को रात कह दिया था। आज रात को रात कहने वाले सहाफ़ी कितने हैं? आज सहाफ़ी के हाथ में उसका अपना क़लम नहीं है। वह अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं लिख सकता।
मालिकों की बनाई गई पालिसी से हट नहीं सकता। किसी लोकतंत्र व्यवस्था में बहुलतावादी समाज के लिए यह बहुत ख़तरनाक स्थिती है। बहुलतावादी समाज में सहाफ़त अल्पसंख्यकों की आवाज़ बनकर उभरती है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करती है। अल्पसंख्यकों पर होने वाले ज़ुल्मों की रिपोर्टिंग करती है। अल्पसंख्यकों की समस्याओं को सरकार के सामने पेश करती है।
सहाफी़, जर्नलिस्ट का असल काम समस्याओं को उजागर करना और समस्याओं को सही दिशा देना है। समाज में आए दिन बहुत सी समस्याएं पैदा होती हैं। उन समस्याओं पर जनता, वक्ता, विद्वान, साहित्यकार और सामाजिक लोग बहस करते हैं, भाषण देते हैं। उसके बावजूद बहुत सी समस्याओं पर अवाम और सरकार की तवज्जो नहीं हो पाती।
लेकिन जब किसी समस्या पर जर्नलिस्ट क़लम उठाता है तो वह मामला मीडिया की सुर्ख़ियों में आ जाता है और देखते ही देखते वह मामला राष्ट्रीय और कभी कभी अंतर्राष्ट्रीय मसला बन जाता है। इसकी एक ताज़ा मिसाल दिल्ली में उर्दू की सूरतेहाल है।
उर्दू की सूरते हाल पर साहित्यकार और शायर विभिन्न मंचों से बोलते रहे हैं। इस विषय पर सिम्पोज़ियम और सेमिनार होते रहते हैं, उर्दू अंजुमनें सरकार को मेमोरेंडम देती रही हैं और उनकी ख़बरें भी मीडिया में आती रही हैं। इसके बावजूद यह मसला कोई अहमियत हासिल नहीं कर सका।
लेकिन जैसे ही एक सहाफ़ी के क़लम से इस पर रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो उसी दिन शिक्षा विभाग ने इसका नोटिस लिया। लगभग दो माह बीत गए अभी तक मसला गरम है। अब तो अपोज़िशन लीडर्स भी उर्दू की सूरतेहाल पर मातम मनाने लगे हैं। इसका मतलब है कि मीडिया अगर चाहे तो किसी भी मसले को राष्ट्रीय बना सकता है और वही मीडिया किसी आलमी मसले को भी नजरअंदाज कर सकता है।
यह एक अच्छे और समझदार जनर्लिस्ट की पहचान है कि वह समाज में जन्म लेने वाली समस्याओं में से किसको कितनी अहमियत देता है। इस मौक़े पर उर्दू के सहाफियों और मीडिया के ज़िम्मेदारों से ख़ासतौर पर गुज़ारिश करूंगा कि वह अपनी क़ौम की समस्याओं और मामलों को बेहतर और प्रभावी ढंग से पेश करने में अपना किरदार अदा करें। एक-एक मसले पर तहक़ीक़ी रिपोर्ट प्रकाशित करें।
यह बात याद रखिए कि पूरा देश वही ज़ुबान बोलता है जो मीडिया बोलता है। इसलिए मीडिया की ज़िम्मेदारी देश की प्रगति में और अधिक बढ़ जाती है।