मसाइल के पैदा होने का सबब अगर जहालत है तो मसाइल का इलाज और हल, इल्म और तालीम
तालीम को अगर मास्टर-की (Master-key) कहा जाए तो ग़लत न होगा। मसाइल पैदा होने की वजह अगर जहालत है तो उन मसाइल का इलाज और हल तालीम ही है। इस बात में किसी भी अक़्लमंद आदमी को मतभेद नहीं है कि तालीम दोनों जहाँ में कामयाबी के लिए ज़रूरी है। किसी ज़माने में भी इल्म और जहल बराबर नहीं हुए हैं।
हमेशा इल्म वाले इज्ज़त की नज़र से देखे गए हैं। दुनिया से उनके चले जाने के बाद भी उनको याद किया गया है। इल्म की दौलत बाँटने से और बढ़ती रही है। अगर आप इल्म वालों की दौलत का अंदाज़ा करना चाहें तो लाइब्रेरियों में जाएँ। दुनिया की बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियाँ इल्म के ख़ज़ानों से भरी पड़ी हैं और इल्म वालों की अज़मत की गवाह हैं। इल्म वाले ज़मीन पर सितारों की तरह हैं जबकि क़ारूनी ख़जा़ना रखने वालों को दुनिया भुला देती है।
माल वालों में से केवल वही लोग याद रखे गए हैं जिन्होंने इल्म वालों के साथ मिलकर कोई बड़ा इल्मी कारनामा अंजाम दिया है। मिसाल के तौर पर ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ की वजह से आज दुनिया सर सैयद रह० को याद करती है, उनकी क़ब्र पर फूल चढ़ाती है, उनकी याद में डिनर का आयोजन करती है उनके नाम पर इदारे बनाती है। उनको माल व धन से सहायता करने वालों का भी ज़िक्र किताबों में मौजूद है। वह मालदार लोग ख़ुशकि़स्मत हैं जो इल्म वालों के साथ मिलकर मुल्क व क़ौम के लिए तालीमी इदारे क़ायम करते हैं।
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मुसलमान तालीम के आसमान पर लगभग एक हज़ार साल तक सितारों की तरह जगमगाते रहे। उनके इल्मी कारनामेां से बड़ी बड़ी लाइब्रेरियाँ भरी हुई हैं। उनके क़लम के साथ साथ उनके ताज भी चमकते रहे। जैसे जैसे उनके क़लम की रोशनाई सूखती रही वैसे वैसे ही उनके ताज की चमक फीकी पड़ती रही। अंतत: क़लम, किताब और ताज, म्यूज़ियम की रौनक़ बनकर रह गये।
अंग्रेज़ों के हिन्दोस्तान पर क़ाबिज़ हो जाने के बाद मुसलमान अपनी बक़ा और सल्तनत की हिफ़ाज़त में उलझ कर रह गए। एक लंबे संघर्ष के बाद देश आज़ाद हुआ तो आज़ादी के बाद से कुछ ऐसे मसाइल में उलझ गए या उलझा दिए गये जिन्होंने मुसलमानो के इत्तिहाद व इत्तिफ़ाक़, उनकी माली ताक़त, उनकी अख़्लाक़ी शिनाख़्त और उनकी इल्मी बुलंदी को ख़ाक में मिल दिया। इस बात के कुबूल करने में कोई हरज नहीं कि एक ज़माने तक मुसलमान मॉडर्न एजुकेशन की ज़रूरत का ही इंकार और उसकी मुख़ालिफ़त करते रहे।
हुकूमत की ज़ुबान सीखना ग़ुलामी की निशानी और साइंस की तालीम गुमराही ठहराई गई। पूरी तरह तवज्जो तो अब भी नहीं है लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से इस संबंध में जागरूकता महसूस की जा रही है। उलेमा ने भी मॉडर्न तालीम की तरफ़ क़दम बढ़ाए हैं। अरबी मदरसों में मॉडर्न एजुकेशन को जगह दी गई है। ख़ुद उलेमा के ज़रिए अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल खोले गए हैं। यह बहुत खुशी की बात है। मैं समझता हूँ कि अगर थोड़ी सी तवज्जो और हो जाए तो भारत के मुसलमान अपना खोया हुआ वक़ार और मक़ाम दोनों पा सकते हैं।
मुसलमानों में तालीमी जागरूकता का सबूत हर साल कंप्टीशन के एग़्ज़ाम में मुस्लिम स्टूडैण्ट्स की कामयाब होने वाली तादाद है। अगर केवल मेडिकल फील्ड का ही आप जायज़ा लें तो हर साल 10 से 20 प्रतिशत बढ़ोतरी देखेंगे। यूपीएससी में भी मुस्लिम स्टूडैण्ट्स हर साल बढ़ रहें हैं। यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है। बल्कि एक बड़ी कामयाबी और रोशन मुस्तक़बिल की ज़मानत है। भारत के मुसलमानों को इसी दिशा में चलते रहने की ज़रूरत है। उन्हें यह अहद करना चाहिए कि वह एक समय खाना खाएंगे लेकिन अपने बच्चों को ज़रूर पढ़ाएंगे।
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इस साल दिल्ली के ऑल-इंण्डिया अस्पताल, AIIMS में कुल 132 स्टूडैण्ट्स में से 16 मुसलमान हैं जो लगभग 12 प्रतिशत हैं। भारत में मुसलमानों की आबादी हुकूमत के आंकड़ों के मुताबिक़ 15 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि मेडिकल फ़ील्ड में भारत के मुसलमान अपनी आबादी के प्रतिशत को छू सकते हैं। केरल, कर्नाटक और तेलंगाना में वहां की आबादी के अनुपात में मुसालमान मुक़ाबले में आ रहे हैं। महाराष्ट्र और बंगाल के कुछ जि़लों की स्थिति भी संतोषजनक है। लेकिन उत्तर प्रदेश जहाँ भारतीय मुसलमानों की 25 प्रतिशत आबादी है उसकी स्थिति बहुत ख़राब है। यही स्थिति आसाम और बिहार की भी है।
कामयाबी के आंकड़ों में बढ़ोतरी से दिल को सुकून होता है। मायूसी के बादल छंटते हैं। जिंन्दगी के आसार नज़र आते हैं। लगता है कि भारत में हमारी नस्लों को इज्ज़त व वक़ार की जिंन्दगी नसीब होगी। मैं उन तमाम लोगों को सलाम पेश करता हूँ जो भारतीय मुसलमानों की तालीमी तरक्क़ी के लिए काशिश कर रहे हैं। जो इल्म व तालीम के चराग़ों को अपने लहू से रोशन कर रहे हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं में कायाबी के आंकड़ों से हमारे हौसलों में इज़ाफ़ा होता है।
मेरी मस्जिद के इमामों और ख़तीबों व दानिश्वरों से गुज़ारिश है कि अवाम को भी इस ख़ामोश तालीमी इंक़लाब से वाकि़फ़ करवाएँ ताकि उनके अंदर जोश और जुनून पैदा हो सके। मुझे तसलीम है कि हमारे अंदर बहुत कमज़ोरियां हैं। अभी काम बहुत बाक़ी है। हमारे मुक़र्ररीन अपनी तक़रीरों में इन कमज़ारियों की तरफ़ तवज्जो दिलाते रहते हैं लेकिन स्टेज से हर वक़्त कमज़ोरियों और ख़राबियों व नाकामियों का बयान उम्मीदों का चराग़ भी बुझा देता है। इसलिए ज़रूरी है कि हर कामयाबी पर हौसला बढ़ाया जाए ताकि उम्मीदों के चराग़ जलते रहें।
भारत में मुसलमानों की तरक्क़ी और कामयाबी का रास्ता केवल और केवल तालीम का रास्ता ही है। उससे दूर रहकर किसी भी मैदान में कोई कामयाबी हासिल नहीं हो सकती। तालीम से लापरवाही खुदकुशी है। तालीम के ज़रिये शऊर की दौलत मिलती है, ग़लतफ़हमियाँ दूर होती हैं, अंधभक्ति से छुटकारा मिलता है, देश की सेवा का मौक़ा मिलता है। इंसानियत की सेवा करने वालों को ही दुनिया की इमामत का मंसब हासिल होता है। तालीमी सफ़र को जारी रखने और उसमें तेज़ी लाने के लिए ज़रूरी है कि हम कुछ मशवरों पर ग़ौर फ़रमालें और उनको हालात के मुताबिक़ अमल में लाएँ:
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जदीद तालीम की ज़रूरत, अहमियत और इफ़ादियत को तसलीम किया जाए। इसका हासिल करना भी, طلب العلم فریضہ में शामिल है। दीनी तालमी की अहमियत अपनी जगह क़ायम है लेकिन जदीद उलूम की किसी भी अंदाज में मुख़ालिफ़त तबाहकुन है।
तमाम मकातिब व मदरसों में प्राइमरी मॉडर्न एजूकेशन का माक़ूल और मयारी बंदोबस्त किया जाए। यह कोई मुशिकल काम नहीं है। मस्जिद के मॉडर्न एजुकेटेड मुक़तदियों के ज़रिये यह इंतेज़ाम किया जा सकता है।हर आदमी अपनी आमदनी का 15 से 20% तालीम पर ख़र्च करे। अगर उसका अपना ख़र्च नहीं है तो अपने आसपास के पढ़ने वाले बच्चों की जरू़रतों पर ख़र्च करे। मालदार अपने मुहल्ले, रिश्तेदारों और बस्ती के ग़रीबों की जि़म्मेदारी उठाएँ।
हर बस्ती के ज़हीन और मेहनती बच्चों की तालीमी रहनुमाई और सरपरस्ती की जाए। उनकी और उनके माँ-बाप की काउंसलिंग की जाए। उनकी ज़रूरतों से मिल्ली तंज़ीमों और जमातों को आगाह किया जाए।
मदरसों से फ़ारिग़ तलबा हुकूमत के मॉडर्न एजुकेशन सिस्टम से फ़ायदा उठाएं। आलिम और हाफि़ज़े-कुरान तलबा के लिए हिफ़्ज़ुल-क़ुरान-प्लस और आलिम-प्लस की क्लासेज़ कई राज्यों में कामयाबी के साथ चल रही हैं। यू.पी में भी सहसवान जि़ला बदायूँ, बहराइच, मुरादाबाद, मुज़फरनगर में मौजूद हैं। विभिन्न यूनिवर्सिटीयों जैसे ए.एम.यू, जामिया, मानू आदि में कई प्रोग्राम मदरसों के बच्चों के लिए ख़ास हैं। इग्नू और एन.आई.ओ.एस के ज़रिये भी कॉलेज की डिग्रियाँ ली जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड की मौलवी, मुंशी आदि की सनद भी आला तालीम में सहायक हैं। अन्य राज्यों में भी इसी तरह का निज़ाम है, इन सहूलियात और माध्यमों से फ़ायदा उठाते हुए हम आगे बढ़ सकते हैं।
मुस्लिम सरकारी मुलाजि़म इस बात का अहद करें कि वह अपने घर और ख़ानदान में से दो बच्चों को इस तरह उच्च-शिक्षा दिलाएंगे कि वह सरकारी नौकरियाँ हासिल कर लें। इसी के साथ वह बस्ती के किसी एक ज़हीन छात्र को गाइड करें।
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हमारे डॉक्टर्स, मास्टर्स, वकील, इंजीनियर्स और प्रशासनिक ओहदों पर आसीन लोग अपने पेशे और इल्म की विरासत कम से कम 2 लोगों में ट्रांसफर करने की प्लानिंग करें तो भारतीय मुसलमान दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्क़ी कर सकते हैं।
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मैं इस वक़्त कमज़ोरियों पर बात नहीं करना चाहता मगर सिर्फ़ एक कमज़ोरी की तरफ़ आपकी तवज्जो दिलाना चाहता हूँ कि हम मेहनत से जी चुराते हैं। तमाम काम दुआ के ज़रिये, खुदा से कराना चाहते हैं। यह रवैया किसी तरह मुनासिब नहीं है। हमें अपने हिस्से का काम करने के बाद दुआ के लिए हाथ उठाने चाहिए। अपने काम ख़ुद करने की आदत डालनी चाहिए। तालीम हासिल करने में सख्त मेहनत करनी चाहिए। हम केवल तालीमी सनद ही हासिल न करें बल्कि उन सर्टिफिकेट्स के मुताबिक़ हमें इल्म भी हो। इल्मी सलाहियत के बग़ैर ये सर्टिफिकेट्स काग़ज़ के चंद परचे हैं जो फ़ाइल की ज़ीनत बनकर हमारा मुंह चिढ़ाते हैं।
इसलिए ऐ मेरे भाइयों, तुम्हारी नस्लें तुम्हारा भविष्य हैं। अपनी नस्लों को तालीम दिलाकर अपने मुस्तक़बिल को रोशन और ताबनाक बना लो। तुम्हारी ग़फ़लत का नु़क़सान तुम्हारी अपनी औलाद को ही होगा। क्या तुम अपनी औलाद का नुक़सान चाहते होॽ