आज देश मेँ जहां एक ओर भीड़तंत्र है, वहां कानून अपना काम नहीं करता बल्कि भीड़ में आकर किसी भी वयक्ति की जान लेकर लोग अन्याय कर रहे हैं जिसको न्याय का नाम दिया जा रहा है ।तथाकथित गोरक्षक जुनैद जैसे बेगुनाहों को बेदर्दी से क़त्ल करके देश को भयावे माहौल की तरफ लेजा रहे हैं , दुसरे समुदाय जहाँ बहुसंख्या मेँ हैं यदि प्रतिकिर्या के रूप मेँ भीड़ द्वारा बेगुनाहों को क़त्ल करने लगें तो देश का लोकतंत्र भीड़तंत्र के हवाले होजायेगा और देश मेँ सिविल वार की स्तिथि बन जायेगी जिससे सारे विकास के सपने चकना चूर होजाएंगे और दुश्मन पड़ोस से अपना काम करलेगा ।
जब अंधभक्ति या अंधविश्वास या अंधी भीड़ के पास सच और झूठ जानने का सब्र नहीं होता तो इस भीड़ का धर्म इतना कमज़ोर हो जाता है कि फेसबुक के पोस्ट (चाहे ही वो झूठा हो) से संकट में आ जाता है इन्हें कैसे समझ में आयेगा की धर्म हमेशा हाथों में तलवार लेकर ही नहीं बचाया जा सकता है बल्कि कभी हाथों में कलम थाम कर देखो, इसकी धार तलवार की धार से तेज़ होती है बशर्ते दिल में धर्म के साथ-साथ सब्र और मानवता भी हो।
सांप्रदायिक नफरत के बाद का भारत
19 मार्च 2015 को फ़र्खुंदा (अफ़ग़ानिस्तान ) एक 27 साल की अफगानी लड़की बच्चों को पढ़ाकर वापस लौट रही थी। रास्ते में वो एक मजार पर गयी जहाँ उसने ताबीज बेचने वालों और शिर्क करने वालों का विरोध किया इसकी शिकायत वहाँ के प्रमुख से की गयी फलस्वरूप उन तथाकथित मौलवी और उसके गुर्गों ने फ़र्खुंदा पर क़ुरान जलाने का झूठा आरोप लगाकर उसे भीड़ के हवाले कर दिया। भीड़ ने सच्चाई को जाने बिना पहले उसे पत्थरों और डंडों से मारा,उसे सड़क पर घसीटा और अंत में उसे जला दिया गया। उसे मारने वाले अधिकतर वो लड़के थे जो ना तो दींन को समझते थे और न सच्चाई को बस अंधभक्ति और अंधविश्वास उनका मज़हब था ।भले ही इस घटना के बाद उसके खिलाफ ईशनिन्दा का कोई सबूत नही मिला और उसकी बेगुनाही साबित हो गई उसे शहीद का दर्जा भी मिला और जिस सड़क पर उसे घसीटा गया और जलाया गया था उसका नाम ‘फ़र्खुंदा’ के नाम पर रखा गया।
सांप्रदायिक नफरत से पहलेका भारत
मशाल खान- पाकिस्तान कवि और लेखक बनने के सपनें देखने के साथ वो नोबल पुरस्कार पाना चाहता था। सूफी संगीत, फोटोग्राफी का शौक रखने वाले 23 साल का ये लड़का सबके अधिकारों ले लिए लड़ा करता था पर अफ़सोस 13 अप्रैल 2017 को जब ये अकेले भीड़ से जिंदगी की जंग लड़ रहा था तो कोई इसके लिए लड़ने नहीं आया। वो अक्सर लिखता था कि ‘जितना मैं लोगों को समझने लगा हूँ उतना ही मुझे अपने कुत्ते से प्यार हो गया है’।
‘गौरक्षा युग’ की शुरुआत अख़लाक़ की मौत के साथ भारत में एक नई किस्म की धर्मान्धता ले कर आयी। एक बुज़ुर्ग को केवल बीफ रखने के शक में पूरे गांव के बीच मार दिया गया , इस हत्या ने भारत में भीड़ को एक नया स्वरुप दे दिया,और मज़ीद ज़ुल्म यह कि झूटी गौ रक्षा को देश रक्षा से जोड़ कर उसे इतनी शक्ति दी गयी कि अख़लाक़ की हत्या के आरोपी की जेल मेँ बीमारी से मृत्यु पर उसके शव को तिरंगे से लपेटा गया इसपर शहीदों की आत्माओं ने क्या मातम न किया होगा उस समय तथाकथित देशभक्त कहाँ थे जब आरोपी को तिरंगे मेँ लपेटा जारहा था ।
भीड़ साहस तो देती है पर सहनशीलता और सही गलत सोचने की क्षमता क्यों नहीं देती? फ़र्खुंदाओं की शहादत किसी भीड़ को सम्मति क्यों नहीं देती। फ़र्खुंदा सड़क पर चलने वाले क्या कभी इस बात को याद रखेंगे कि उनमें से कुछ उस भीड़ का हिस्सा बने थे, अब ऐसा कभी न होगा।क्या EMU के general डिब्बे मेँ सफर करने वाले या जुनैद के भाई की दर्द भरी दास्ताँ सुनने वाले इससे सबक़ लेंगे की ऐसी घटना अब कभी नहीं होने देंगे या प्रतिकिर्या वियक्त करके ऐसी घटनाओं का चक्र शुरू करेंगे। क्रिया की प्रतिक्रिया से मुंबई सीरियल ब्लास्ट की खौफनाक घटनाएं वुजूद मेँ आती हैं जो देश और जनता के हित मेँ नहीं ।
ऐसे मेँ यदि सरकारें इन्साफ के साथ फैसला सुनाकर दोषियों को सख्त सजा देदें तो घटनाओं पर पाबंदी लग सकती है अन्यथा नाइंसाफी बदअमनी और विनाश की जननी होती है ।
आज अख़लाक़, फर्खुंदा, मशाल हमारे साथ नहीं है, पर अगर भीड़ ने धर्म के साथ-साथ इंसानियत को बचाने की एक कोशिश की होती तो शायद फ़र्खुंदा आज शिक्षिका बन कर बच्चों को इल्म दे रही होती, मशाल कविताएं लिख रहा होता और अख़लाक़ ईद अपनों के साथ मना रहा होता।
यह लेख इस उम्मीद के साथ लिख रहा हूँ की अब कोई अख़लाक़, जुनैद, कार्तिक घोष की बलि धर्म ,अंधभक्ति या अंधविश्वास और भीड़ के नाम पर न चढ़े।सरकारें निष्पक्ष फैसले सुनाकर आरोपियों को सख्त सजा सुनाये और देश को भीड़तंत्र के भेड़िए से निजात (मुक्ति) मिले ।Editor’s desk
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