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*देश मे ISIS का खतरा बढ़ता जा रहा है! जरा पढें*
By Nitin Thakur
शंभुलाल रैगर ने एक अधेड़ आदमी को कैमरा फोन के सामने कुल्हाड़ी से काट कर जला डाला. इसके बाद उसने अपनी करतूत को लव जिहाद के खिलाफ कदम ठहराया और इंतज़ार करने लगा कि लोग भगवा और तिरंगे झंडे लेकर उसके बचाव के लिए आएं. *मूर्खों ने उसे निराश नहीं किया. ना सिर्फ उसे बचाने के लिए चंदा इकट्ठा किया बल्कि झांकी निकालकर हीरो बनाया. और ये सब तब है जब राजस्थान पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि रैगर खुद शादीशुदा होकर लड़की के साथ अवैध संबंध रखता था.* लोन दिलाने के नाम पर रैगर ने लड़की को बैंक मैनेजर से यौन संबंध बनाने को राजी किया.
दरअसल रैगर ने जिस अधेड़ को मारा उसे लड़की और रैगर के संबंध पता चल गए थे. *रैगर को इसमें हिंदू-मुस्लिम एंगल निकालने की गुंजाइश दिखी और उसने वही किया. बाकी का काम धर्म के नाम पर चुंधियाए मूर्खों ने अंजाम दिया.*
? अब यही जम्मू के कठुआ में हो रहा है. हवशियों ने आठ साल की मासूम सी बच्ची को मंदिर में कई दिनों तक रौंदा. दोस्तों को दूसरे शहरों से बुला बुलाकर कई कई बार बलात्कार किया.
बच्ची को बेहोशी के टेबलेट देते रहे. जब मन भर गया तो हत्या करके फेंक दिया जैसे लोग गंदे हाथ को टिश्यू पेपर से साफ करके फेंक दिया करते हैं. *इन दरिंदों के लिए इंसानी जान खराब हो चुके टिश्यू पेपर से ज़्यादा नहीं है. अब चूंकि लड़की मुसलमान है तो अपने बचाव की गुंजाइश फिर इसी में है कि मामले को सांप्रदायिक रंग दे दो. फटाफट तिरंगे लहराकर साबित कर दो कि हम तो राष्ट्रभक्त लोग हैं.
इन्हें विश्वास है कि झंडा दिखाकर ये दूसरे पक्ष को आसानी से गद्दार साबित कर देंगे. आधा मुल्क तो झंडा देखकर ही भावुक हो जाता है.* ये फॉर्मूला इतना सटीक है कि बार बार देश में अपनी करतूतों को ढंकने के लिए इस्तेमाल हो रहा है.
जो बचे हैं उन्हें हिंदू-हिंदू के शोर में पागल करके अपनी तरफ खींच लिया जाता है. ट्वीटर पर एकाध मानसिक रोगी लिख भी चुका है कि अच्छा हुआ वो लड़की मर गई, वैसे भी बड़ी होकर आतंकवादी ही बनती.
*इतनी नीचता? संस्कारों का इतना स्खलन? दिमाग में इतना ज़्यादा गोबर?? एक-दूसरे को रौंद डालने के लिए ऐसा वहशीपन???*
?? *ये लोग किस तालिबान से कम हैं? ISIS बनने की इनमें कौन सी गुंजाइश नहीं है? देश की व्यवस्था एक बार बिगड़ जाए और इनके हाथ में हथियार आ जाएं तो ये वो भी कर सकते हैं जिसके लिए बर्बर आतंकी संगठनों को कोसते हैं.* और फिर रातोंरात संगठन थोड़े ही बनते हैं.
हालात इसी तरह उन्हें बनाते हैं. हालात तो वैसे ही बनते दिख भी रहे हैं. प्रधानमंत्री चुप बैठा है. मुख्यमंत्रियों को चुनाव जीतने से फुरसत नहीं. विपक्ष प्रतीकात्मक विरोध तक में फेल है तो सड़क पर असली संघर्ष तो भूल ही जाइए.
आम आदमी जीएसटी और तेल बढ़ोतरी से बिगड़े बजट पर सिर खपाने से ही नहीं उबर पा रहा है तो तेज़ी से अपनी तरफ बढ़ रहे संकट को कहां से पहचाने?
*ये देश जाति और धर्म के पाटों के बीच फंसकर पिसता जा रहा है. या तो किसी एक तरफ होकर सुरक्षित होने का भ्रम पाल लीजिए या फिर झुंझलाते हुए इसका पिसता जाना हमारे साथ में देखिए.*